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जिनमत को कष्ट पहुँचाता था। दुषमकाल के प्रभाव से बुखार के साथ सिरदर्द की तरह, लोंकाशा को उसका सहयोग मिल गया।
आवेश में अन्धा इन्सान क्या-क्या कुकर्म नहीं करता! इस विषय में जमालि और गोशाला के दृष्टान्त प्रसिद्ध हैं। क्रोधावेश में आया लोंकाशा मुसलमान सैयदों के वचनों पर विश्वास कर अपने धर्म से च्युत हुआ। इससे पूर्व लोंकाशा त्रिकाल श्रीजिनपूजा करता था, ऐसा उल्लेख मिलता है। पर साधुओं द्वारा अपमानित होने के वाद अग्नि में घी की भाँति उसे सैयदों का संयोग मिल गया तथा सैयदों ने उससे मन्दिर और मूर्ति छुड़वा दी। तब से वह पूजनकार्य को निरर्थक मानने लगा। सैयदों ने उसको कहा - "ईश्वर तो मुक्ति में है तथा गन्दगी से दूर है तो इसके लिये मूर्तियों की, मन्दिरों की तथा स्नान-विलेपन की क्या जरूरत है?" लोंकाशा को यह बात पूर्ण सत्य लगी।
मिथ्यात्व के उदय से ऐसी झूठी बातें भी कई बार हृदय में इस प्रकार घर कर जाती हैं कि उसके सम्मुख फिर अनेक युक्तियाँ, आगम अथवा इतिहास आदि के प्रमाण भी रखने में आवे तो भी वे निकल नहीं पातीं और इसी कारण अनेक नये निकलने वाले पंथों और मतों की तरह लोंकाशा ने भी अपना मत खड़ा कर दिया।
लोकाशा ने केवल मूर्तिपूजा का ही विरोध नहीं किया पर जैन आगम, जैन संस्कृति, सामायिक, प्रतिक्रमण, दान, देवपूजा तथा प्रत्याख्यान आदि का भी विरोध किया। अन्तिम अवस्था में इसे अपने दुष्कृत्यों का पश्चाताप भी हुआ। इसका प्रमाण यह है कि उसने सामायिक-पौषध-प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं को आदरसूचक स्थान दिया और बाद में दान देने की भी छूट दी। इसके पश्चात् मेघजी ऋषि आदि ने इस मत का सदंतर त्याग कर पुन: जैनदीक्षा को स्वीकार किया है तथा वह मूर्तिपूजा के समर्थक एवं प्रचारक बने। लोंकागच्छीय आचार्यों ने मन्दिरों तथा मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई तथा अपने-अपने उपाश्रय में भी प्रतिमाओं की स्थापना कर मूर्तियों की उपासना की है।
लोकागच्छ का एक भी उपाश्रय ऐसा नहीं था जहाँ श्री वीतराग प्रभु की मूर्ति न हो। परन्तु विक्रम की 18 वीं सदी में यति धर्मसिंह और लवजी ऋषि-दोनों ने लोंकागच्छ में अलग होकर पुनः मूर्ति के विरुद्ध विद्रोह खडा किया। लोंकागच्छ के श्रीपज्यों ने दोनों को गच्छ से बाहर कर दिया, परन्तु उन दोनों के द्वारा प्रचारित मत चल पड़ा। इस नये मत को "ढूँढक मत'' का उपनाम मिला। इस सम्प्रदाय का दूसरा नाम्र "साधुमार्गी' अथवा "स्थानकवासी'' पड़ा। इन ढूंढियों और लोंकाशा के अनुयायियों में क्रिया और श्रद्धा में दिन-रात जैसा अन्तर है। स्थानकमार्गी यानी ढूंढक लवजी ऋषि के अनुयायी हैं। ___स्थानकवासी समाज की उत्पत्ति का यह संक्षिप्त इतिहास है। आज उनमें से भी बहुतों ने मूर्तिपूजा की आवश्यकता और हितकारिता को स्वीकार किया है।