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विक्रम की 13 वीं शताब्दी में दिल्ली पर मुस्लिम सत्ता का शासन हुआ। सत्ता के मद में आकर वे अनेद मन्दिरों एवं अज्ञानी लोगों को हिन्दू धर्म से भ्रष्ट करने लगे फिर भी उन्हें पूर्ण सफलता नहीं मिली। थोड़े बहुत जो विधर्मी बने वे भी अधिकांश स्वार्थी और धर्म से अनभिज्ञ लोग थे। ऐसी विकट स्थिति में भी भारतीय धर्मवीरों पर अनार्थ संस्कृति का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा।
विक्रम की 14 वीं सदी में दिल्ली, मालवा और गुजरात की भूमि पर मुस्लिमों की सत्ता का आधिपत्य हुआ और उन्होंने वहाँ की शिल्पकला और मन्दिरों का नाश किया, विधर्मी नहीं बनने वालों की सम्पत्ति को लूटा तथा उन्हें प्राण-दण्ड दिया। तब तक भी धर्मवीरों पर अनार्य संस्कृति का जरा भी प्रभाव नहीं पड़ा और इसके विपरीत, प्रतिस्पर्धा के कारण धर्म एवं मूर्तिपूजा का विश्वास और भक्तिभाव बढ़ता ही गया।
शिलालेखों से यह ज्ञात होता है कि ऐसी विकट परिस्थिति के समय में भी पुराने मन्दिरों के नाश की अपेक्षा नये मन्दिर अधिक संख्या में बनें। उदाहरणस्वरूप वि.सं. 1396 में मुसलमानों ने शत्रुजय के सभी मन्दिरों का नाश किया और 1371 में श्रेष्ठी समरसिंह ने करोड़ों का द्रव्य खर्च करके पुनः शत्रुजय पर स्वर्गविमान समान मन्दिरों का निर्माण करवा लिया।
विक्रम की 16 वीं सदी भारतवर्ष के लिए महादुःख एवं भयंकर कलंक रूप साबित हुई। अनार्य संस्कृति का दोषपूर्ण प्रभाव अनेक व्यक्तियों पर पड़ चुका था तथा अनेक अज्ञानी व्यक्तियों ने अनार्य संस्कृति का अन्धानुकरण कर बिना कुछ सोचे समझे आर्य मन्दिर एवं मूर्तियों की ओर क्रूर दृष्टि से देखना प्रारम्भ कर दिया था।
श्वेताम्बर जैनों में लोकाशा, दिगम्बर जैनों में तारणस्वामी, सिक्खों में गुरु नानक, जुलाहों में कबीर, वैष्णवों में रामचरण तथा अंग्रेजों में मार्टिन लूथर आदि लोगों ने बिना सोचे-समझे संस्कृति के आधार-स्तम्भ रूप मन्दिर और मूर्तियों के विरुद्ध आवाज उठाना शूरु कर दिया था। 'ईश्वर की उपासना के लिये जड़ पदार्थों की कोई आवश्यकता नहीं है', ऐसा कहकर मूर्तियों द्वारा अपने इष्ट देवों की उपासना करने वालों को उन्होंने आत्मकल्याण के मार्ग से हटा दिया था।
श्वेताम्बर जैनों का लोंकाशा के साथ सम्बन्ध है। लोंकाशा के जीवन में विषय में भिन्न-भिन्न लेखकों के अलग-अलग उल्लेख मिलते हैं परन्तु लोंकाशा का जैन साधु के द्वारा अपमान हुआ, इस विषय में सभी एकमत हैं। एक ओर उसका अपमान तथा दूसरी ओर मुसलमानों का सहयोग, लोंकाशा को कर्तव्यच्युत करने वाला सिद्ध हुआ
वि. सं. 1544 के आसपास हुए उपाध्याय श्री कमलसंयमी 'सिद्धान्तचौपाई' में लिखते है कि फिरोजखान नामका बादशाह मन्दिरों और पौषधशालाओं को ध्वंस कर
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