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.. इस प्रकार मूर्तिपूजा का अस्तित्व सनातन काल का है। सभी सुविहित आचार्यों ने इस विधान को आदर देकर जैनसमाज पर बड़ा उपकार किया है।
मूर्तिपूजा के विरोधी भी मूर्तिपूजा को मानते हैं - मूर्तिपूजा का सर्वप्रथम विरोधी मुहम्मद है परन्तु उसके अनुयायी भी अपनी मस्जिदों में पीरों की आकृतियाँ बनाकर पुष्पधूपादि से पूजते हैं, ताजिया बनाकर उसके आगे रोनापीटना करते हैं तथा यात्रा के लिए मक्का-मदीना जाकर वहाँ एक काले पत्थर का चुम्बन करते हैं तथा ऐसा मानते हैं कि इससे पाप नष्ट होते हैं।
मूर्तिपूजा नहीं मानने वाले ईसाई सूली पर लटकती ईसामसीह की मूर्ति और क्रॉस स्थापित कर अपने चर्च में उसे पूज्यभाव से देखते हैं, द्रव्यभाव से पूजा करते हैं तथा पुष्पहार चढ़ाते हैं।
कबीर, नानक, रामचरण आदि मूर्ति विरोधियों के अनुयायी अपने-अपने पूज्य पुरुषों की समाधियाँ बनाकर पूजते हैं। समाधियों के दर्शनार्थ भक्त लोग दूर-दूर से आते हैं तथा पुष्पादि पदार्थ चढ़ा कर अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं।
स्थानकवासी वर्ग अपने पूज्यों की समाधि, पादुका, चित्र आदि बनाकर उपासना करते हैं, दर्शन हेतु दूर-दूर से आते हैं तथा दर्शन कर अपने को कृतकृत्य मानते हैं। ___कोई भी पंथ, मत, सम्प्रदाय, जाति, धर्म तथा व्यक्ति मूर्तिपूजा से वंचित नहीं है। मूर्जिपूजकों ने संसार का जितना उपकार किया है, विरोधियों ने उतना ही अपकार किया है। मूर्ति आत्मकल्याणकारक होकर संसार के सभी जीवों की सच्ची उन्नति का साधन है। इसका विरोध आत्म-अहित का तथा विश्व भर के अध:पतन का प्रमुख कारण है।
हे परमात्मा! मुझे अन्य कोई चाह नहीं है। आपकी भक्ति के फलस्वरूप मुझे ये तीन वस्तुएँ प्राप्त हों - (१) सहस समाधिमरण (२) दीनतारहित जीवन और (३) मृत्यु के समय आपका सान्निध्य .
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