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________________ की भावना कृतज्ञ आत्माओं में न हो, ऐसा कैसे हो सकता है ? ऐसी बुद्धि कृत्रिम या निरर्थक नहीं होती परन्तु स्वाभाविक एवं सार्थक होती है। धर्म-दृष्टि से यह धन-व्यय, आत्मा को परमात्मा बनाता है, व्यवहारदृष्टि से मूर्ति और मन्दिर के रूप में जगत् में स्थायी रहता है तथा दीर्घ काल तक अनेक का उपकार करता हुआ बना रहता है। जीवन में प्राप्त पदार्थों का श्रेष्ठतम उपयोग कराने वाला यदि कोई भी मार्ग है तो वह इस प्रकार श्री जिनमन्दिर और श्री जिनमूर्ति आदि की भक्ति में होने वाला धनव्यय ही है। धन के सद्व्यय का इससे श्रेष्ठ मार्ग अन्य नहीं हो सकता; क्योंकि दूसरा कोई भी मार्ग इस प्रकार कल्याणकारी हो, ऐसा सम्भव नहीं है । धन धन श्री अरिहन्त ने रे, जेणे ओलखाव्यो लोक सलूणा । ए जिन नी पूजा विना रे, जनम गुमाव्यो फोक सलूणा ॥ 筑 अमिय भरी मूर्ति रची रे, उपमा न घटे कोय | शान्त सुधारस झीलती रे, निरखत तृप्ति न होय || 30
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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