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________________ लोभ और परिग्रह के पाप से उपार्जित द्रव्य के सद्व्यय के लिए भी जिनमन्दिरों की खास आवश्यकता है। धर्म के लिए धन अर्जित करने का जैनशासन में कोई विधान नहीं है परन्तु पापसंज्ञाओं के कारण उपार्जित द्रव्य का सदुपयोग करने का तथा उत्तम धर्मक्षेत्रों में दान देकर उत्तम फल प्राप्त करने का तो जैनशासन में विधान अवश्य है। परमात्मा के उपदेश अथवा शासन से धर्मी आत्मा संग्रह किये हुए अस्थिर एवं विनाशी द्रव्य का उपयोग, परमात्मा के मन्दिर आदि के लिए न करे, तो यह रंक आत्मा सर्वसमर्पणयुद्धि से, परमात्मा की आज्ञापालन के लिए कैसे तैयार होगा? परमात्मा की आराधना हेतु, परिग्रह की ममता कम करने के लिए अथवा गृहस्थायस्था में उदारता आदि सद्गुणों की सर्वोत्कृष्ट फल-प्राप्ति तथा श्री जिनभक्ति के लिए मन्दिरों एवं मूर्तियों से बढ़कर सुन्दर स्थान जगत् भर में अन्यत्र कहाँ मिल सकता है? ___परमात्मा के शासन का अपने ऊपर अतुल भावोपकार है - इस बात को समझने वाले पुण्यात्मा, परमात्म-परायण बनने के लिए मन्दिर एवं मूर्ति पर होने वाले अधिक से अधिक धन-व्यय को कम ही मानते हैं तथा इससे विपरीत दिशा में होने वाले धन-व्यय को अनर्थकारी एवं सांसारिक बन्धनों में जकड़ने वाला मानते हैं। प्रभुशासन को प्राप्त गृहस्थ तो ऐसा मानते हैं कि जिनभक्ति आदि में उपयोग में नहीं आने वाला द्रव्य प्रायः स्वयं की तथा स्वयं के वंशजो की परिग्रह-भावना का पोषक होता है। केवल इतना ही नहीं पर वह तो उनको तथा उनकी संतति को विलासता के मार्ग पर आगे बढ़ाकर उन्हें अधोगति में धकेलने वाला बनता है। पुत्र-पौत्रों आदि को दी हुई सम्पत्ति अधिकांशतः ऐसे लोगों के स्वामित्व में चली जाती है, जो धर्म-परायण नहीं है तथा उस पर अधिकार भी ऐसे ही वर्ग का बन जाता है। मन्दिर एवं मूर्ति पर किया हुआ धनव्यय नष्ट नहीं होता, परन्तु रूपान्तरित हो जाता है, जब कि भोगों के उपभोग में, ऐश-आराम में तथा मौज-शौक के साधनों पर खर्च किया हुआ धन क्षणिक फल देकर पूर्ण रूप से नष्ट होता है तथा भोक्ता के लिए अनर्थ एवं उन्मादबुद्धि का कारण बनता है और उस मार्ग में व्यय किया हुआ एक पैसा भी परमात्मा अथवा उसके पवित्र शासन की आराधना के मार्ग में उपयोगी नहीं बनता। अविनाशी और अपार सुख से भरपूर मोक्ष एवं इसकी प्राप्ति के पथप्रदर्शक तथा आत्म-तत्त्व और अनात्म-तत्त्व का भेद समझा कर आत्म-तत्त्व के उपासक बनाने वाले परमात्मा के मनोहर मन्दिरों में एवं इन तारकों की सुन्दर प्रतिमाओं में सर्वस्व अर्पित कर देने -29
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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