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क्या जिनपूजा में हिंसा हैं?
_ 'श्री जिनेश्वरदेव की भक्ति के लिए मूर्ति एवं दरों पर कार वाला धनव्यय निरर्थक नहीं अपितु सार्थक है' इतना स्वीकार करने के बाद कई लोगों के मन में एक शंका काँटे की तरह चुभती है . "श्री जिनपूजा में पृथ्वी, जल, आन आदि के जीवों का विनाश होता है तो ऐसी पूजा किस प्रकार उपादेय बन सकती है? अहिंसक प्रागन में हिंसक प्रवृत्ति धर्म बनती है, ऐसा प्रतिपादन करना क्या असंगत नहीं है?"
ऐसी शंका का जन्म जिनशासन की अहिंसा के वास्तविक ज्ञान के अभाव में होता हैं। जिसमें जीवहत्या होती है, वह सारी क्रिया ही हिंसक है' अथवा जीव का वध होना, इसी का नाम हिंसा है ऐसा जैनशास्त्र ने कभी नहीं कहा। जैनशास्त्रानुसार - 'विषयकषायादि की प्रवृत्ति करते अन्य जीवों को प्राणहानि पहुँचाना, इसी का नाम हिंसा है।' विषय-कषायादि की प्रवृत्ति बिना होने वाले प्राण-नाश आदि को भी हिंसा मान लिया जाय तो दान आदि एक भी धर्म-प्रवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इन सब में जीववध तो समाया हुआ ही है।
___ यदि जिनपूजा के कार्य में जीववध है तो गुरुभक्ति, शास्त्र-श्रवण, प्रतिक्रमण आदि कार्यों में क्या जीववध नहीं है? अवश्य है; परन्तु उसमें उद्देश्य जीववध का नहीं, पर गुरुभक्ति आदि का है; अतः ऐसी दशा में इसे हिंसा का कार्य नहीं कहा जा सकता। इसी भाँति जिनपूजा में भी उद्देश्य जिनभक्ति का है, अतः उसे हिंसक कार्य कैसे कह सकते है? केवल जीववध को ही यदि हिंसा का नाम दे दिया जाय तो नदी पार करने वाले तथा गाँवगाँव विहार करने वाले साधु को भी हिंसक ही कहा जाएगा। साथ ही लोभ आदि परिषह को सहने वाले तथा उग्र तपस्या द्वारा शरीर को सुखाने वाले एवं महाव्रतों के संरक्षण हेतु अवसर आने पर अपने प्राणों की बलि देने वाले भी हिंसा का कार्य करने वाले हैं, ऐसा कहना पड़ेगा।
इसके जवाब में यदि ऐसा कहा जाय कि इन सब कार्यों के लिए भगवान की अनुमति है - तो इसके साथ ही प्रश्न करना पड़ेगा कि क्या हिंसा के कार्यों के लिए भगवान कभी आज्ञा देते हैं? क्या ऐसा हो सकता है कि भगवान् को हिंसा करने की तो नहीं पर करवाने की छुट है? पर नहीं, भगवान भी त्रिकरणयोग से हिंसा के त्यागी होते हैं। यदि इन
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