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ऐसा मानना एक भयंकर भूल है। .
'नाम' की भक्तिकास्वीकार और 'आकार' की भक्तिकाइन्कार? : नामकी भक्तिको स्वीकार करने के याद आकारकीभक्तिकी उपेक्षा करना तो और भी भयानक भूल है। उपास्य का नाम केवल उसके गुणों को सक्ष्य में रखकर नहीं होता परन्तु उसके देहाकार को लक्ष्य में लेकर होता है। चदि उपास्य का नाम केवल उसके गुणों को लक्ष्य में लेकर होता तो प्रत्येक उपास्थ को भिन्न-भिन्न नाम देने की आवश्यकता ही नहीं रहती। विभिन्न उपास्यों के समान गुण होते हुए भी उनके देहाकार आदि समान नहीं होते, इसीलिए प्रत्येक कानाम अलग-अलग होता है। देहाकारकी भक्ति काफल मानते हुए भी साक्षात् देहाकार की भक्ति को निष्फल मानना - बुद्धि की गड़ता के सिवाय और कुछ नहीं है। .. नाम अथवा नाम की स्थापना - यह शब्दात्मक जड़पुद्गलों से बनी हुई है। ठीक उसी प्रकार देहाकार अथवा उसकी स्थापना भी जड़ पुद्गलों से बनी है। शब्दात्मक और स्वल्प बड़ पुद्गलों की भक्ति को फलवती मानना एवम् इन्हीं शब्दों से उत्पन्न असाधारण निमित्तस्वरुप आकारात्मक विशालकाय बने हुए जड़ पुद्गलों की भक्ति को निष्फल अर्थात् पापवर्धक मानना यह तो क्षुद्र बुद्धि का ही परिणाम कहा जा सकता है। __ नाम यदि कल्याणकारी है तो यह नाम जिस स्वरूप का है, वह स्वरूप अधिक कल्याणकारी है - इसमें किसी भी बुद्धिशाली व्यक्ति के दो मत नहीं हो सकते।
सावध कौन? निरवध कौन?
'नाम की भक्ति निरवद्य है तथा आकार की भक्ति सावध है' - ऐसा तर्क करने वाले सावद्य-निरवद्य के भेद को नहीं समझ सके हैं। भक्ति अथवा गुण-प्राप्ति के किसी भी कार्य को सावध कहना - यह श्री जैनशासन को मान्य नहीं हो। इतना ही नहीं किन्तु कोई भी सभ्य व्यक्ति इस कथन से सहमत नहीं हो सकता। अधिक सावध से बचने के लिए अल्प सावध के उपयोग को भी यदि सावध का कार्य माना जाय तो इस धरती पर कोई भी निरवद्य कार्य नहीं रहेगा अथवा रहेगा तो केवल एक ही- जिसमें हाथ-पैर हिलाये बिना शून्य रूप से (जड़वत्) बैठे रहना या सोए रहना होगा। दूसरे शब्दों में मृतावस्था ही निरवद्य बन कर शेष रहेगी। सम्पूर्ण जीवित अवस्था सावध है। इस स्थिति को भक्ति अथवा गुण-प्राप्तिके कार्य में आरोपित करना यह तो भक्ति तथा गुण रहित रहने एवं रखने का ही एक राजमार्ग है।
बालक ज्ञानरहित एवं क्रीड़ाशील स्वभाव का होता है। उसे ज्ञानी बनाने के लिए 'प्रयत्न करने पर भी, अपने खेलने के स्वभाव के कारण वह शीघ्र ज्ञानी नहीं बन सकता परन्तु केवल इसी बात पर बालक के अज्ञानी रहने का दोष, पढ़ाने में प्रयत्नशील शिक्षक
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