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आकार के आलम्बन की
आवश्यकता
श्री जिनेश्वरदेव, उनके मार्ग पर चलने वाले निग्रंय गुरु और उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म - इन तीनों को मानते हुए भी इन तीनों की साधना जिन-जिन विधियों से होती है, उन सब विधियों को नहीं मानने वाली
आत्माएँ श्री जिनशासन में परमार्थ से आस्तिक नहीं हो सकती। - "श्री जिनेश्वरदेव की साधना जिस प्रकार उनके नामस्मरण से होती है, उनके गुणस्मरण से होती है, उनके पूर्वापर के चरित्रों के श्रवण से होती है, उनकी आज्ञाओं के पालन से होती है, उनकी भक्ति से होती है, उनकी आज्ञाओं के पालन से होती है, उसी प्रकार उनके आकार, मूर्ति या प्रतिबिम्ब की भक्ति से भी होती है", • यह सत्य जब तक स्वीकार न किया जाय तब तक श्री जिनेश्वरदेव की कृत उपासना भी अपूर्ण ही रहती है।
श्री जिनेश्वरदेव की पूजा कोई कल्पित वस्तु नहीं है अथवा अपना स्वार्थ साधने के लिए किन्ही धूर्त व्यक्तियों के द्वारा आविष्कृत वस्तु नहीं है। यह तो भक्त-आत्माओं के हृदय की गहरी भक्ति में से निकली हुई एक सहज और अनिवार्य वृत्ति तथा प्रवृत्ति है। . जगत् के सभी प्राणियों की चित्त-वृत्ति अपने-अपने इष्ट पदार्थों के गुण-धर्म की और रूप-रंग के प्रति स्वाभाविक रूप से झुकी हुई होती है। इतना ही नहीं परन्तु छद्मस्थ आत्माएँ वस्तु के गुण-धर्म की पहिचान बहुधा उसके रूप-रंग के आधार पर ही करती हैं। मूर्त पदार्थों के गुण-धर्म भी अधिकांशतः अमूर्त (इन्द्रिय अगोचर) होते हैं तो फिर अमूर्त पदार्थों के गुणधर्म सम्पूर्णतया अमूर्त हो तो इसमें आश्चर्य जैसी बात ही क्या है? अमूर्त पदार्थों के अमूर्त गुण-धर्मों का स्वरूप, उनके नाम और आकार को छोड़ कर अन्य प्रकार से जाना जाय, ऐसा उपाय इस जगत् में आज तक खोजा नहीं गया है। अमूर्त अथवा मूर्त दोनों में से एक भी पदार्थ के सभी गुण-धर्मों और उसके स्वरुप का बोध छद्मस्थ आत्माओं को उनके नाम और आकार के आलंबन के बिना लेश मात्र भी नहीं हो सकता। ऐसा होते हुए भी "उसकी भक्ति या उपासना उसके नाम अथवा आकार का आलंबन लिए बिना ही हो सकती है"