SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मा आदि को मानते हुए भी उसके आंशिक स्वरुपको नहीं मानने अथवा विपरीत प्रकार से मानने वाला आस्तिक करता है, इसीलिए श्री जैनदर्शन में ऐसी आत्माएँ व्यवहार से आस्तिक मानी जाने पर भी परमार्थ से नास्तिों की श्रेणी में ही आती हैं। श्री जिनेश्वरदेव के सत्य वचनों को उसी स्वरूप में ग्रहण न कर विपरीत रूप में ग्रहण करने में श्री जिनशासन में आस्तिक्य का भंग माना गया है, जो एक प्रकार की नास्तिकता ही है। प्रकट नास्तिकता से जो हानि पहुँचती है, उससे भी अधिक हानि प्रच्छन्न नास्तिकता से हो जाती है। प्रकट नास्तिक के लिए सुसंयोगवश आस्तिक बनने की जितनी संभावना है, उतनी संभावना प्रच्छन्न नास्तिक के लिए प्रायः नहीं है, क्योंकि वास्तविक प्रकार का आस्तिक नहीं होते हुए भी अधिकांशतः आस्तिकता के मिथ्याभिमान में मग्न होकर वह समस्त जीवन को नष्ट करने वाला होता है। हे प्रभो! इस जगत् में यदि आपकी प्रतिमा नहीं होती तो हम आपके स्वरूप को कैसे जान पाते? जिन प्रतिमा से तो . प्रभु के स्वरूप का भान होता है । अतः प्रभु के समान प्रभु की प्रतिमा से भी उतना ही उपकार होता है । - १३
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy