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________________ - श्रद्धादि गुणों के परिपाक और अतिशय से प्रधान परोपकार के हेतु रूप अपूर्वकरण गुणस्थान की प्राप्ति होती है। - श्रद्धादि के लाभ का क्रम भी इसी प्रकार है - श्रद्धा से मेधा, मेधा से ति, धति से धारणा और धारणा से अनुप्रेक्षा का लाभ होता है तथा श्रद्धा की वृद्धि से धारणा की वृद्धि और धारणा की वृद्धि से अनुप्रेक्षा की वृद्धि होती है। जिन-प्रतिमा की अवहेलना, साक्षात् परमात्मा की ही आशातना है। अतः भूलकर भी जिन-प्रतिमा कीआशातना न करें। भक्ति में श्रद्धा व समर्पण अनिवार्य है। बिना हस्ताक्षर के चैक की कोई कीमत नहीं है, वैसे ही बिना समर्पण की भक्ति भी वन्ध्या ही है। . सूर्य के आगमन के साथ ही अन्धकार दूर भाग जाता है. . . वैसे ही हृदय में प्रभु-भक्ति के आगमन के साथ ही आत्मा में रहा अज्ञान-अन्धकार दूर हो जाता है। | 180
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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