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________________ अवज्ञा कराने वाला है और गुरु विनयादि में जोड़ने वाला है। शास्त्र में इसे 'आतुर-औषधाप्ति उपादेयता' की उपमा दी गई है। जिस प्रकार किसी बुद्धिमान रोगी को उत्तम औषधि की प्राप्ति हो और उससे विशिष्ट फल का अनुभव हो जाय तो वह अन्य समस्त वस्तुओं का त्याग कर उसी औषध के ग्रहण करने में आदर भाव रखता है। इसी प्रकार मेधावी पुरुष को भी अपनी मेधा के सामर्थ्य से सद्ग्रंथ के विषय में अत्यन्त उपादेय भाव रहता है, क्योंकि वह सद्ग्रंथ को ही भाव-औषध मानता है। धीइए - रागादि आकुलता से रहित मन की स्थिरता द्वारा। मोहनीय कर्म के क्षयोपशम आदि से उत्पन्न प्रीति को धृति कहते हैं। शास्त्र में इसे 'दौर्गत्यहतचिंतामणि प्राप्ति' की उपमा दी गई है। जिस प्रकार दरिद्रता से उपहृत व्यक्ति को चिंतामणि रत्न की प्राप्ति होने पर और उसके गुण को जान लेने पर 'अब मेरा दारिद्र्य चला गया' इस प्रकार का मानसिक सन्तोष उत्पन्न होता है; उसी प्रकार जिसे जिनधर्म रूपी चिंतामणि रत्न की प्राप्ति हुई है और जिसने उसके रहस्य को समझा है, उसके लिए अब यह संसार मेरा क्या बिगाड़ सकता है?' इस प्रकार चिन्ता रहित मानसिक सन्तोष उत्पा होता है। धारणाए - धारणा अर्थात् अविस्मरण द्वारा। यह धारणा ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जन्य है। किसी वस्तु विशेष को विषय करने वाली है। शास्त्र में इसे सच्चे मोती की माला पिरोने की उपमा दी है। विशिष्ट प्रकार के उपयोग की दढता से तथा यथायोग्य अविक्षिप्त रूप से स्थानादि योग में प्रवृत्त होने से योग रूप गुणमाला तैयार होती है। अणुप्पेहाए- विचारपूर्वक अनुप्रेक्षा द्वारा। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जन्य अनुभूत अर्थ के अभ्यास विशेष को अनुप्रेक्षा कहते हैं जो परम संवेग का हेतु है, उत्तरोत्तर पदार्थ के विशेष-विशेष रहस्य को बताने वाला है और अन्त में केवलज्ञान की ओर ले जाने वाला है। ___ शास्त्र में इसे 'रत्नशोधक अनल' की उपमा दी गई है। जिस प्रकार 'रत्नशोधक अग्नि' रत्न की अशुद्धि को दूर कर देता है, इसी प्रकार अनुप्रेक्षा रूपी अग्नि आत्मरत्न में रही कर्म-मल की अशुद्धि को जलाकर कैवल्य को पैदा करती है। ये श्रद्धा आदि पाँच गुण अपूर्वकरण नामक महासमाधि के बीज हैं। इसके परिपाक और अतिशय से अपूर्वकरण की प्राप्ति होती है। कुतर्क से उत्पन्न मिथ्या विकल्पों को दूर कर श्रवण, पठन, प्रतिपत्ति, इच्छा और प्रवृत्ति में जुड़ना यह इसका परिपाक है तथा स्थैर्य और सिद्धि को प्राप्त करना इसका अतिशय है। -179
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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