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वंदण वत्तियाए - वन्दन अर्थात् मन, वचन और काया की प्रशस्त प्रवृत्ति । समस्त चैत्यों के वन्दन के फल के लिए (मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।)
पूअण वतियाए- पूजन अर्थात् सुगंधित पुष्प, केसर आदि से अर्चना । पूजा के फल के लिए ( मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।)
सक्कार वत्तियाए - श्रेष्ठ वस्त्र, अलंकार आदि से अभ्यर्चन को सत्कार कहते हैं | सत्कार के फल के लिए ( मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।)
प्रश्न- क्या साधु के लिए पूजन और सत्कार निषिद्ध नहीं हैं?
उत्तर - साधु के लिए द्रव्य स्तव करने का निषेध है, किन्तु 'कराने' और 'अनुमोदन' करने का निषेध नहीं है। अतः साधु गृहस्थ को पूजा का उपदेश दे सकते हैं और परमात्मा की भव्य आंगी को देखकर अनुमोदन भी कर सकते हैं।
सम्माण वत्तिथाए - स्तुति आदि द्वारा गुणों के उत्कीर्तन को सम्मान कहते हैं। चैत्यों के सम्मान के फल के लिए ( मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।)
वन्दन के हेतु
बोहिलाभ वतियाए अरिहन्त प्रणीत धर्म की भाव से प्राप्ति अर्थात् बोधि के लिए ( मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।)
निरुवसग्ग यत्तियाए - जन्म आदि उपसर्ग से रहित स्थान मोक्ष की प्राप्ति के लिए ( मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।)
(श्रद्धा आदि से रहित कायोत्सर्ग फलदायी नहीं बनता है, करता हूँ।)
अत: उनसे
'युक्त कायोत्सर्ग
सद्धाए- बढ़ती हुई श्रद्धा से । श्रद्धा अर्थात् मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के क्षयोपशम आदि से जन्य चित्त की निज अभिलाषा रूप प्रसन्नता । यह श्रद्धा जीवादि तात्त्विक पदार्थों का अनुसरण करने वाली है, भ्रांति का नाश करने वाली है और कर्म-फल, कर्म - सम्बन्ध और कर्म के अस्तित्व की प्रतीति कराने वाली है।
शास्त्र में इसे 'उदक प्रसादक मणि' की उपमा दी गई है। गन्दे सरोवर में 'उदक प्रसादक मणि' डालने पर सरोवर की पंक- कलुषता दूर हो जाती है और सरोवर का जल स्वच्छ बन जाता है। इसी प्रकार श्रद्धा रूपी मणि से चित्त सरोवर में रहा हुआ संशयविपर्यय आदि का मैल दूर हो जाता है और अरिहंत प्रणीत मार्ग पर सम्यग् भाव उत्पन्न होता
है।
• मेहाए - मेधा अर्थात् बुद्धि पूर्वक । ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जन्य ग्रंथ ग्रहण करने का पटु परिणाम । यह परिणाम सद्ग्रंथ में प्रवृत्ति करानेवाला है, पापश्रुत की
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