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________________ द्वेषपूर्वक उपभोग नहीं किया गया। किसी भी स्त्री की ओर मोहदृष्टि से अथवा किसी शत्रु की ओर द्वेषदृष्टि से नहीं देखा गया; केवल वस्तुस्वभाव तथा कर्म की विचित्रता का विचार कर भगवान के नेत्र सदा समभात्र में रहते हैं। ऐसे भगवान के नेत्रों को कोटिशः धन्य है । ' 'इन दोनों कानों के द्वारा विचित्र प्रकार की राग-रागिनियों का रागपूर्वक श्रवण नहीं किया गया परन्तु इन्होंने मधुर या कटु, अच्छे या बुरे जैसे भी शब्द कान में पड़े, उनको रागद्वेष रहित होकर सुना है । " 'इस शरीर को किसी जीव की हिंसा अथवा अदत्त-ग्रहण आदि का दोष नहीं लगा। इसका उपयोग केवल जीवरक्षा निमित्त तथा सभी को सुख मिले, उसी ढंग से हुआ है। इस देह ने गाँव-गाँव विहार कर अनेक जीवों के सांसारिक बन्धनों को तोड़ा है तथा सभी कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान या केवलदर्शन को प्रकट किया है। ' 'ऐसे प्रभु अनुपम उपकारी तथा सम्पूर्ण जगत् के अकारण बन्धु होने से उनको असंख्य बार धन्यवाद है । इनकी यथाशक्ति भक्ति करना, यह मेरा परम कर्तव्य है।' प्रभु की शान्त मुद्रा देखकर ऐसी शुभ भावना अन्तःकरण में उत्पन्न होती है । उत्तम जीव, नि:स्वार्थ प्रेमी, ऐसे परमात्मा की जल, चन्दन, केसर, बरास, पुष्प, धूप, दीप, अक्षत, फल, नैवेद्य आदि से पूजा करते हैं, बहुमूल्य आभूषण चढ़ाते हैं, इनकी भक्ति में यथाशक्ति धन खर्च करते हैं और सोचते हैं कि 'यदि मैं प्रभु की भक्ति करूंगा तो मैं स्वयं तिरने के साथ अन्यों का तिराने में भी निमित्त बनूंगा क्योंकि मेरी भक्ति देखकर दूसरे लोग उसका अनुकरण करेंगे तथ अनेक भव्य पुरुष भगवान की सेवा करने में तत्पर होंगे और मैं उसमें निमित्त बनूंगा।' द्रव्यपूजा- समाप्ति के पश्चात् भावपूजा करते समय भक्त भगवान के गुणों का स्मरण कर अपनी आत्मा के साथ उनकी तुलना करता है कि - 'अहो ! प्रभु वीतरागी है और मैं रागी हूँ। प्रभु द्वेष रहित हैं और मैं द्वेष पूर्ण हूँ। प्रभु क्रोध रहित हैं और मैं क्रोधी हूँ । प्रभु निष्काम हैं और मैं कामी हूँ। प्रभु निर्विषयी हैं और मैं विषयी हूँ। प्रभु मान रहित हैं और मैं मानी हूँ । प्रभु माया से परे हैं और मैं मायावी हूँ। प्रभु निर्लोभ हैं और मैं लोभी हूँ। प्रभु आत्मानन्दी हैं और मैं पुद्गलानन्दी हूँ । प्रभु अतीन्द्रिय सुख के भोगी है और मैं विषय सुख का भोगी हूँ।
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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