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पास में रखते हैं, उसमें सैकड़ों फूलों की हिंसा हो जाने पर भी पाप का लेश भी ख्याल नहीं रहता है और पूजा के पुष्प, जो प्रभु के अंग पर निर्भय स्थान में चढ़ते हैं, उसमें भयंकर पाप मानते हैं, सचमुच उनकी बुद्धि उन्मार्गगामी ही बनी है। ऐसा शिक्षण देने वाले गुरुओं के सामने जाना, उन गुरुओं के दीक्षा व मृत्यु के प्रसंग में सैकड़ों मील दूर से वन्दन के लिए जाना इत्यादि कृत्यों में एकेन्द्रिय सिवाय विकलेन्द्रिय-पंचेन्द्रिय जीवों की भी प्रत्यक्ष हिंसा है, फिर भी उस हिंसा के सामने आँख-मिचौनी कर केवल जिनपूजा के महान् धर्म से भ्रष्ट करने के लिए ऐसा कुतर्क देना कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? प्रायः ऐसा कोई धर्म कार्य नहीं है, जिसमें हिंसा का लेश भी अंश न हो, इतने मात्र से धर्मप्रवृत्ति का त्याग करोगे, 'जगत् में एक भी कार्य उपादेय नहीं गिना जाएगा। प्रश्न 79 श्री जिनप्रतिमा की स्तुति करने की सर्वोत्तम विधि क्या
तब तो
है?
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उत्तर
प्रतिमा में भगवान के नाम तथा गुणों का आरोपण कर उसके समक्ष भगवान की स्तुति करना, यह सर्वोत्तम विधि है। जैसे अपने पूर्वजों का चित्र देखकर सभी उसकी प्रशंसा करते हैं, उसे सुनकर चित्त प्रसन्न होता है तथा पूर्वजों को आदर मिलता है, ऐसा प्रतिभास होता है, वैसे ही भगवन्त की प्रतिमा का आदर करने से भगवान का ही आदर होता है, ऐसा लगना चाहिए ।
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भगवान को आदर देने की इच्छा जगी, यह भी परम शुभ अध्यवसाय का लक्षण है और उससे जीव महान् पुण्य उपार्जित करता है। गृहस्थाश्रम भोगने वाले श्रावकों के लिए भगवान का गुणगान करने हेतु अनुकूल स्थान श्री जिनमन्दिर को छोड़कर अन्य कोई नहीं है । भगवान के गुणों का स्मरण तथा ध्यान करने के लिए श्री जिनमन्दिर में जिनप्रतिमा की स्थापना की गई है। उसके दर्शन के साथ ही भगवान के गुण याद आते हैं।
श्री जिनमूर्ति की मुखाकृति देखकर विचार पैदा होता हैं, 'अहो ! यह मुख कितना सुन्दर है कि जिसके द्वारा किसी के लिए भी अपशब्द नहीं बोला गया तथा जिससे कभी हिंसक, कठोर अथवा कड़वे वचन नहीं निकले। उसमें रही जीभ से रसनेन्द्रिय के विषयों का कभी भी रागद्वेष से सेवन नहीं किया गया, परन्तु उस मुख द्वारा धर्मोपदेश देकर अनेक भव्य जीवों को इस संसार सागर से पार उतारा गया है, इसलिए यह मुख हजारों बार धन्यवाद का पात्र है।"
भगवान की नासिका द्वारा सुगन्ध या दुर्गन्ध रूप घ्राणान्द्रय के विषयों का राग अथवा द्वेषपूर्वक उपभोग नहीं किया गया।
'इन चक्षुओं द्वारा पाँच वर्ण रूप विषयों का पन भर के लिये भी राग अथवा