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से मार्ग में शाश्वत अशाश्वत जिनमन्दिर रह जाते हैं, उसका मन में खेद उत्पन्न होता है। वह भी प्रमादगति है । इसलिए उसकी आलोचना आती है।
कारण
श्री दशवैकालिक सूत्र में कहा है कि साधु गोचरी लाकर गुरु के पास सम्यक् प्रकार से आलोचना करे वह आलोचना गोचरी की नहीं, उसमें प्रमाद परन्तु के आने-जाने से उपयोग नहीं रहने से कोई दोष लगा हो, उसकी आलोचना की जाती है। साधु को जाते-आते, प्रतिक्रमण अथवा अन्य कोई क्रिया करते आलोचना के रूप में ' 'इरियावहिय' प्रतिक्रमण करने का है। वह प्रमाद को लेकर है न कि शुभ क्रियाओं को लेकर ।
प्रश्न 71 - जंघाचारण तथा विद्याचारण मुनि श्री नन्दीश्वर द्वीप में 'चेइयाई' शब्द से ज्ञान का आराधन करते हैं, किन्तु प्रतिमा को वन्दन नहीं करते हैं। क्या यह बात बराबर है?
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उत्तर - श्री ठाणांग तथा श्री जीवाभिगम सूत्र में नन्दीश्वर आदि द्वीपों में शाश्वती प्रतिमाएँ होने का कथन विस्तारपूर्वक है। जम्बूद्वीप पण्णत्ति सूत्र में मानुषोत्तर पर्वत के 13 कूटों के नाम गिनाकर प्रत्येक कूट पर तथा देवताओं से समस्त भवनों में सिद्धायतन (जिनमन्दिर) को बताने वाले पाठ हैं। उनकी वन्दना करने के लिए लब्धिवन्त मुनि जाते हैं। ऐसा प्राय: सर्व जैन मानते हैं। फिर भी 'चेइयाई' शब्द का अर्थ मनः कल्पित 'ज्ञान' कर उत्सूत्र प्ररूपणा करना महादोषयुक्त कार्य ही है 'चैत्य' शब्द का ज्ञान अर्थ किसी भी व्याकरण को सम्मत नहीं है। ज्ञान तो अरूपी वस्तु होने से उसका ध्यान तो घर बैठे भी हो सकता है। इसके लिए श्री नन्दीश्वर द्वीप जाने का क्या कार्य है ? तथा ज्ञान तो एकवचन है और 'चेइयाइं' शब्द बहुवचन में है इससे भी उसका अर्थ 'प्रतिमा' को छोड़कर अन्य नहीं हो सकता है।
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प्रश्न 72 - देवताओं को श्री भगवती सूत्र में 'नो धम्मिआ' कहा गया है। उनके द्वारा की गई मूर्तिपूजा कैसे प्रामाणिक मानी जाय?
उत्तर - उस स्थान में तो चारित्र की उपेक्षा से 'नो धम्मिआ' कहा गया है। जैसे श्री भगवती सूत्र में देवताओं को 'बाल' कहा गया है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप मोक्षमार्ग में से देवताओं को सम्यग्ज्ञान और दर्शन होता है परन्तु चारित्र की प्राप्ति नहीं होने से उन्हें 'नो संयति' भी कहा गया है। श्री ठाणांग सूत्र में सम्यक्त्व को संवर धर्म कहा है। जिनप्रतिमा का पूजन सम्यक्त्व का आचारण है, उस दृष्टि से सम्यग्दृष्टि देवों को चारित्र की अपेक्षा 'बाल' 'नो संयति' और 'नो धम्मिआ' कहा है, किन्तु सम्यग्दर्शन या ज्ञान की अपेक्षा से नहीं ।
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श्री भगवती सूत्र के पाँचवें शतक के चौथे उद्देश्य में कहा है कि . 'देयाणं भंते । असंजताति यत्तव्यं सिया? गोयमा ! णो तिणट्टे,
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