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________________ समुद्र का पार पा सकते हैं। शास्त्रकारों का यह भी अभिप्राय है कि शाश्वती और अशाश्वती दोनों प्रकार की मूर्तियों के पूजन से एक समान फल प्राप्त होता है। शाश्वती प्रतिमा का आदर करने के बाद अशाश्वती प्रतिमा का अनादर करना, महामूर्खता का ही काम है । दोनों प्रकार की प्रतिमाएँ एक समान सम्माननीय हैं। क्योंकि वे दोनों एक ही देव की हैं, अलग-अलग देव की नहीं हैं कि जिससे एक का बहुमान और दूसरे का अबहुमान हो जाय। एक कारण यह भी है कि देवताओं की शक्ति अचिन्त्य होने से वे जितने भाव से पूजा करते हैं, उतने भाव से प्रायः मनुष्य न कर सके, फिर भी द्रौपटी मनुष्य और उसमें भी स्त्री होने पर भी उसने महान् सूर्याभदेव के समान बड़े आडम्बर के साथ जिनपूजा की है तथा सूर्याभदेव जैसे निश्चय सम्यग्दृष्टि है उसी प्रकार द्रौपदी भी परम श्राविका है। यह बात बताने का भी शास्त्रकारों का उद्देश्य है । जिस विधि से शाश्वती प्रतिमाएँ पूजी जाती हैं, उसी विधि से अशाश्वती प्रतिमाएँ पूजने से भी, अपने-अपने भाव के अनुसार समान फल प्राप्त कर सकते है, यह बात भी फलित हो जाती है। - अन्य किसी श्रावक की उपमा न देने का कारण यह भी है कि आनन्द आदि श्रावकों के वर्णन में शास्त्रकारों ने पूजाविधि में सूर्याभदेव के अधिकार की तरह सम्पूर्ण विवेचन नहीं किया है, अत: दूसरों का निर्देश कैसे हो सकता है ? जिस स्थान में विशेष जानकारी दी हो, उस स्थान का नाम ही दिया जाता है। प्रश्न 70 - श्री भगवती सूत्र में कहा है - 'यदि कोई साधु नन्दीश्वर द्वीप जाय और वापस भरतक्षेत्र में आकर 'इरियायहिय' प्रतिक्रमण किए बिना कालधर्म पा जाय तो जिनाज्ञाविराधक बनता है और आलोचन करने के बाद काल करे तो आराधक कहलाता है।" तथा श्री समवायांगसूत्र में भी कहा है कि "जंघाचारण और विद्याचारण मुनि 17000 योजन से कुछ अधिक सीधे आकाश में उड़कर फिर तिरछी गति करते हैं" - इस प्रकार मुनियों के गमनागमन को सिद्ध करने वाले बहुत से पाठ हैं। परन्तु नन्दीश्वर द्वीप की यात्रा के लिए जाते समय जो आलोचना आती है तो फिर उस यात्रा से क्या प्रयोजन है? उत्तर - वहाँ जो आलोचना है वह तो प्रमादगति की है। लब्धि का उपयोग करने से मुनियों को प्रमादगति होती है, उसकी यह आलोचनां है परन्तु चैत्यवन्दन आदि की आलोचना नहीं है। तीर के वेग के समान चारण मुनियों की गति का उतावला स्वभाव होने 158
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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