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________________ कहीं भी ऐसा नहीं कहा गया है कि 'विवाह के पूर्व तो द्रौपदी मिथ्यादृष्टि थी और उसके बाद सम्यग्दृष्टि हो गई' - इससे सिद्ध होता है कि वह बाल्यकाल से ही दृढ़ श्राविका और सम्यक्त्वधारी थी तथा निदान से उसके धर्मकार्य में कोई बाधा नहीं पहुँची है। प्रश्न 68 - स्त्री के द्वारा की गई पूजा का प्रमाण रूप कैसे मान सकते उत्तर - यदि इस मान्यता का स्वीकार करेंगे तब तो चारित्र का पालन करने वाली साध्वी स्त्री के भी सम्यक्त्व सम्बन्धी आचरण को मान्य नहीं कर सकेंगे। स्त्री द्वारा गृहीत संयम भी निरर्थक हो जाएगा और ऐसी मान्यता से तो चतुर्विध संघ का एक स्तम्भ ही कमजोर हो जाएगा। शास्त्र में लिखा है- 'अनेक स्त्रियाँ उत्तम प्रकार के धर्म की आराधना कर मोक्ष में गई हैं।' मरुदेवी माता इस अवसर्पिणी में सर्वप्रथम सिद्ध हुई है। श्री मल्लिनाथ स्वामी स्त्री रूप में तीर्थंकर हुए हैं। चन्दनबाला ने महावीर प्रभु का अभिग्रह पूर्ण किया था । इत्यादि अनेक प्रशंसनीय कार्य इस काल चक्र में स्त्रियों ने किए हैं। पुरुषों को तो पूजा की सामग्री मिलना सुलभ है परन्तु स्त्रियों को दुर्लभ होने पर भी द्रौपदी ने पूजा की है। इसी कारण उसके शुभ कार्य की शास्त्रकर्ताओं ने विस्तार से प्रशंसा की है। इससे तो यह सिद्ध होता है कि पुरुषों को तो पूजा का कार्य अवश्य करना चाहिए । प्रश्न 69 - द्रौपदी की पूजा के लिए सूर्याभदेव की पूजा का सूचन किया, तब किसी श्रावक की पूजा का सूचन क्यों नहीं किया? उत्तर - शास्त्रकार महर्षि श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने श्री रायपसेणी सूत्र में सूर्याभदेव के अधिकार में श्री जिनप्रतिमा की पूजा का सविस्तर वर्णन किया है, उसका निर्देश अन्य स्थान में किया है। क्योंकि एक ही बात का उल्लेख बारम्बार करने में आए तब तो शास्त्र का प्रमाण अत्यधिक बढ़ जाता है । उस भय से शास्त्रकार महर्षि एक-दूसरे सूत्र का निर्देश कर देते हैं। श्री महावीर परमात्मा तथा गणधर भगवन्तों ने तो हर स्थान पर सम्पूर्ण वर्णन किया था, परन्तु शास्त्रकार सूत्र को संक्षिप्त करने की इच्छा से एक- दूसरे सूत्रों का निर्देश कर देते हैं। दूसरा कारण यह है कि कई लोग 'शाश्वती जिनप्रतिमाओं की देवता पूजा करते हैं', यह बात तो स्वीकार करते हैं, किन्तु अशाश्वती मूर्ति मानने का निषेध करते हैं। उनके अन्तर्चक्षु खोलने के लिए ही सूर्याभदेव की उपमा दी गई है । जैसे- श्री रायपसेणी सूत्र के कथनानुसार देवतागण निरन्तर शाश्वती मूर्तियों की पूजा कर अपना हित तथा कल्याण साधते हैं और अनुक्रम से मोक्ष की साधना करते है । उसी प्रकार आवक और श्राविकाएँ भी यहाँ रहकर श्रीजिन प्रतिमा के पूजन से उनके (देवताओं) समान आत्म कल्याण साधकर संसार 157
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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