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________________ को प्राप्त कर सके हैं। यहाँ यदि कोई प्रश्न करे कि 'कृष्ण को वासुदेव की पदवी मिलते ही उनका निदान पूरा होने से उन्हें सम्यक्त्व प्राप्त हुआ है और द्रौपदी को पाँच पति की प्राप्ति होते ही उसका निदान पूरा हुआ है' तो यह कहना भी उचित नहीं है । निदान समस्त भव आश्रित होने से उसका फल जिन्दगी पर्यन्त भुगतना पड़ता है। निदान वाली वस्तु की प्राप्ति होने के साथ ही यदि निदान पूरा हो जाता हो, तो फिर उस वस्तु का तुरन्त वियोग अथवा नाश होना चाहिए, परन्तु वैसा तो बनता नहीं है । कृष्ण वासुदेव ने तो जिन्दगी पर्यन्त वासुदेव की पदवी का भोग किया है और द्रौपदी भी अपने पाँच पतियों की हाजरी में ही देवलोक में गई है। श्री दशाश्रुतस्कन्ध में नौवाँ निदान दीक्षा का है... तो फिर दीक्षा लेने के साथ ही वह निदान पूरा हो जाना चाहिए, परन्तु शास्त्रकारों ने तो निदान वाले को उसी भव में मोक्ष में जाने का निषेध बतलाया है। कोई तापस अपनी तपस्या के प्रभाव से आगामी भव में राज्यलक्ष्मी की प्राप्ति का निदान करता है तो वह तापस किसी राजा के वहाँ पुत्र के रूप में जन्म प्राप्त कर, योग्य वय में राजगद्दी पर बैठने के साथ ही उसका निदान पूरा हो जाने से वह दरिद्र बनेगा या राज्य का जीवन - पर्यन्त भोग करेगा ? तात्पर्य यही है कि मन्दरस के निदान वाले को सम्यक्त्वप्राप्ति में कोई बाधा नहीं आती है। परन्तु उत्कृष्ट रस वाले निदान वालों को तो वीतराग का धर्म सुनने का भी अवसर नहीं मिलता है, जब कि द्रौपदी ने तो पीछे से संयम स्वीकार किया है। जिस प्रकार कृष्ण महाराजा सम्यग्दृष्टि श्रावक थे, उसी प्रकार द्रौपदी भी सम्यग्दृष्टि श्राविका थी तथा जीवन पर्यन्त वह सम्यक्त्व में दृढ़ रही थी। श्री ज्ञाता सूत्र में भी लिखा है " 'जब द्रौपदी के पास नारद मुनि आए तब उन्हें असंयत, अविरत और अपच्चक्खाण वाले जानकर उसने सम्मान नहीं दिया, खड़ी होकर उसने नमस्कार भी नहीं किया । " उसी सूत्र में आगे कहा है- "पद्मोत्तर राजा के अन्तःपुर में रहकर भी वह हमेशा छट्ट, अट्ठम आदि तपस्या तथा आत्मा की भावना करती थी । " इस प्रकार की प्रवृत्ति शुद्ध श्राविका हुए बिना कैसे सम्भव है ? श्री भगवती सूत्र में जघन्य से एकव्रत को भी स्वीकार करने वाले को श्रावक कहा है। तथा उस सूत्र में पच्चक्खाण को उत्तर गुण में लिखा गया है। श्री 'दशाश्रुत स्कन्ध' में 'दंसण सायए' कहकर सम्यक्त्वधारी जीव को भी श्रावक गिना है तथा 'प्रश्न व्याकरण' सूत्र की वृत्ति में द्रौपदी को परम श्राविका कहा है। 156
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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