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अर्थात् - मृगापृच्छादि में मन में तो सत्य है और वचन में मिथ्या है। श्री सूथगडांग सूत्र के आठवें अध्ययन में भगवान फरमाते हैं कि - "सादियं ण मुसं यूया, एस धम्मे युसीमओ"
मृगापृच्छादि बिना असत्य न बोले, यह संयमियों का धर्म है। अर्थात् उस समय असत्य भाषा बोले, ऐसी प्रभु की आज्ञा है।
प्रश्न 62 - ज्ञान की महत्ता विशेष है या क्रिया की?
उत्तर - ज्ञान के बिना सत्य-असत्य का पता नहीं चलता। ज्ञान के बिना जगत् का स्वरूप समझ में नहीं आता। ज्ञान के अभाव में देव, गुरु और धर्म के लक्षणों की पहिचान नहीं होती। ज्ञान के बिना धर्मक्रियायें अंधक्रियाओं की भाँति अल्प फल देने वाली होती हैं। शद्ध ज्ञान रहित क्रिया तो केवल अज्ञान कष्ट है। उससे उच्चगति प्राप्त नहीं की जा सकती क्योंकि जमाली, गोशालक आदि ने क्रिया पूरी पाली. उनके समान दया कौन पाल सकता था? फिर भी भगवान की आज्ञाविरुद्ध प्रवृत्ति होने से वे संसार का क्षय नहीं कर सके।
जो एकान्त क्रिया से बड़ा स्वांग रचकर, गुरु बनकर संसार को ठगते हैं, उन्हें सोचना चाहिए कि जमाली आदि के सामने उनकी क्रिया किस अनुपात में है ? मिथ्यात्व रूप से की हुई क्रिया के द्वारा देवगति आदि के सुख भले ही मिलें, पर उससे संसार-भ्रमणता कम नहीं होती. जंगल में रहने वाले, हाथ में ही भोजन करने वाले, महान् कष्टों को सहन करने वाले, नग्न घूमने वाले, व्रतधारी और तपस्वी मिथ्यात्वी ऋषि-मुनियों के बराबर का वर्तमान में कोई लक्षांश भाग भी क्रिया पालन करते हुए दिखाई नहीं देता, तो केवल क्रिया पक्ष वालों को तो ऐसे ही गुरु को धारण करना चाहिए।
शास्त्रकार कहते हैं कि "करोड़ों वर्षों तक पंचाग्नि तप-जप करके अज्ञानी क्रियावादी, आत्मा की जो शुद्धि नहीं कर सकता, उतनी आत्मशुद्धि ज्ञानी मनुष्य एक श्वासोच्छ्वास मात्र में करता हैं।"
श्री भगवती सूत्र में फरमाया है कि-"क्रिया से भ्रष्ट हुआ ज्ञानी, आंशिक विराधक है और सर्व से आराधक है; जबकि ज्ञान से भ्रष्ट क्रिया करने वाला आंशिक आराधक है, पर सर्वतः विराधक है।"
इसलिए कहा है कि .
"पढमं नाणं तओ दया" अर्थात् - दया की अपेक्षा ज्ञान प्रथम श्रेणी में है।
"हिंसा में पाप है'' - ऐसा प्रथम ज्ञान होने से ही हिंसा के कार्य से दूर रहा जायेगा, अन्यथा नहीं। अतः शुद्ध ज्ञानपूर्वक की हुई क्रिया ही संसार से पार उतारने में समर्थ है, ऐसा समझकर सम्यग्ज्ञान का उपार्जन करने के लिए उद्यम करना चाहिए।
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