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आदि नाटक - पूजा को सावद्य समझते तो क्या उसका निषेध नहीं करते ?
" भक्तिपूर्वक" शब्द शास्त्रकारों ने काम में लिया है इससे सूर्याभदेव की भक्ति प्रधान है और भक्तिका फल श्री उत्तराध्ययन सूत्र के 29 वें अध्ययन में मोक्ष तक का कहा है । क्षायिक सम्यक्त्वी, एकावतारी, तीन ज्ञान के स्वामी सूर्याभदेव क्या देव- गुरु भक्ति की विधि को नहीं जानते होंगे। साथ ही भगवान तथा दूसरे सूत्रकारों ने भी इस कार्य में भक्ति का समावेश किया है और इसी कारण उसका निषेध नहीं किया।
अगर मौन रहने का अर्थ निषेध ही करें तो श्री भगवती सूत्र के 11 वें शतक में कहा है कि श्री वीरप्रभु के मुख से बहुत से श्रावकों ने ऋषिभद्र की प्रशंसा सुनकर उनको वन्दन किया, अपराधों की क्षमा मांगी तथा बारहवें शतक में भी ऐसा उल्लेख है कि भगवान के मुख से शंखजी श्रावक की प्रशंसा सुनकर श्रावकों ने उनकी खूब वन्दना की तथा बहुत से श्रावकों ने उनसे क्षमायाचना की। इन दोनों प्रसंगों पर भगवान चुप रहे । यदि भगवान के मौन के कारण इन कार्यों को उनकी आज्ञा के विरुद्ध कहोगे तो यह बात कोई नहीं स्वीकारेगा। क्योंकि - "भगवान ने सब कुछ जानते हुए भी श्रावकों की प्रशंसा क्यों की तथा वन्दन करते हुए श्रावकों को क्यों नहीं रोका? ऐसा प्रश्न खड़ा होगा ।
श्री जीयाभिगम, श्री भगवतीजी तथा श्रीठाणांगसूत्र में देवतागण श्री नन्दीश्वर द्वीप में अट्ठाई महोत्सव, नाटक इत्यादि करते हैं, उनको आराधक कहा है, न कि विराधक ।
श्री रायपसेणी सूत्र में भी सूर्याभदेव के सेवकों ने समवसरण के विषय में भगवान से कहा, तब भगवान ने उनकी प्रशंसा की है। श्री ज्ञातासूत्र आदि में कहा है कि श्री पार्श्वनाथजी की अनेक साध्वियाँ चारित्रविरोधी, तपस्विनियाँ बनी और अज्ञान तपस्या के प्रभाव से श्री महावीर परमात्मा के सम्मुख उन्होंने कई प्रकार के नाटक किये जिसका फल गौतम स्वामी के पूछने पर भगवान ने फरमाया कि -
"इस नाटक की भक्ति करके उन्होंने एकावतारीपने को प्राप्त किया है। "
कितने ही कहते है कि मृगापृच्छा में भी साधु यदि मौन धारण करे तो वहाँ क्या अर्थ समझना? मृगापृच्छा में साधु को मौन रहने का कहीं भी नहीं कहा है। श्री आचारांग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध में कहा है कि -
"जाणं या नो जाणं यदेज्जा"
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अर्थात् - साधु जानता हो तो भी कहे कि मैं नहीं जानता हूँ, अथवा मैंने नहीं देखा, ऐसा ही कहे।
श्री भगवती सूत्र के आठवें शतक के पहले उद्देश में लिखा है कि - "सच्चमणप्पओगपरिणया... मोसययाप्प ओगपरिणया"
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