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प्रश्न 61 - सूर्याभ देयता ने श्री महावीर भगवान के पास नाटक करने को कहा, तब प्रभु मौन क्यों रहे? यह सायद्य कार्य था इसलिये न?
उत्तर - उस समय सूर्याभदेव ने क्या कहा, उस विषय में श्री रायपसेणी सूत्र के नीचे के पाठ पर ध्यान दो।
"अहण्णं भंते! देवाणुप्पियाणं भत्तिपुय्ययंगोयमाईणं समणाणं निग्गंयाणं यत्तीससइबद्धं नट्टविहिं उयदंसेमिा"
"हे भगवन्! मैं आपके सामने भक्तिपूर्वक गौतमादि श्रमण निर्मन्थों को बत्तीस प्रकार का नाटक बताऊंगा।"
सूत्रकार तो "भक्ति-पूर्वक' लिखते हैं, फिर भी उसको मन से - कल्पित रूप से सावध कह देना कितना अनुपयुक्त है? साथ ही सूर्याभ ने प्रश्न के रूप में नहीं पूछा, बल्कि अपनी इच्छा प्रगट की है। ऐसी बातचीत में जवाब देने की जरूरत मना करते समय ही रहती है; स्वीकार करते समय नहीं। अगर सवाल के रूप में पूछा होता तो सूर्याभ जैसा महाविवेकी भगवान् के जवाब के बिना कार्य का आरम्भ नहीं करता। जैसे कोई नौकर किसी कार्य के लिए आज्ञा पाने हेतु अपने स्वामी से प्रश्न करे, फिर भी आज्ञा के रूप में जवाब प्राप्त किये बिना वह नौकर यदि कार्य शुरू कर दे तो वह महा अविवेकी और आज्ञा का उल्लंघन करने वाला ही गिना जायेगा। परम सम्यक्त्ववान् सूर्याभ को ऐसा कैसे माना जा सकता है? भक्ति की इच्छा प्रगट करने के वाक्य में मौन रहने से, आज्ञा ही समझी जाती है और मना करना हो तभी बोलने की आवश्यकता रहती है।
जैसे श्रावक गुरु के पास आकर इच्छा व्यक्त करता है कि - 'हे गुरुजी! मैं आपकी भक्तिपूर्वक वन्दना करूँ।' अब यदि गुरु कहते हैं कि - "हाँ, करो।" तो इससे स्वयं के मुख से ही स्वयं को वन्दन करने का कहने से गुरु मानलोभी कहलाता है और यदि 'ना' कहे तो गुरुवन्दन का कार्य सावध कहा जाकर उसका निषेध हो जाता है। इस प्रकार - "सरोते के बीच सुपारी'' जैसी दशा हो जाती है। तब इस कार्य को निरवद्य जानकर गुरु के लिए चुप रहने के सिवाय कोई रास्ता नहीं।
जैसे कोई कसाई यदि गुरु के पास आकर एक जीव को उसकी भक्ति के रूप से मारने का कहे तो गुरु क्या जवाब देगा? यदि चुप रहे तो कसाई समझेगा कि - "साधु की इस कार्य में अनुमति होने से मुझे नहीं रोकते' और फलस्वरूप वह मारने लग जाएगा। पर यदि साधु ऐसा कहे कि, "यह काम सावध होने से इसमें भक्ति नहीं है'' तभी वह मारने से रुकेगा।
___ आजकल के अल्पज्ञानी साधु भी सावद्य-निरवद्य तथा भक्ति-अभक्ति के हेतु को जानकर योग्य वर्तन करते हैं, तो फिर जगद्गुरु सर्वज्ञ भगवान अथवा गौतमस्वामी महाराज
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