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________________ करती है। पारा सिद्ध करने में बहुत समय लगता है। इस प्रकार सभी कार्य अपनी-अपनी अवधि पूरी होने पर ही फल देते हैं। इसी प्रकार इस भव में भावसहित की हुई द्रव्यपूजा का महान् पुण्य भवान्तर में भोगा जा सकता है तथा सामान्य पूजा का सामान्य पुण्य तो कदाचित् इस जन्म में भी भोगा जा सकता है। उत्तम फल देने वाले कार्यों में ज्ञानी पुरुषों को जल्दबाजी या चिन्तातुर नहीं होना चाहिए। चिन्तामणि रत्न आदि से मिलने वाला फल, पूजा के फल की तुलना में किसी गिनती में नहीं। वह तो तुच्छ फल देने वाला है तथा वह परभव में नहीं पर इस मनुष्य भव में ही जो अधिकतर अल्प समय के लिए होता है, उसी में फल देता है। परन्तु पूजा से उपार्जित पुण्य का फल बहुत बड़ा होने से अधिक समय में भोगने योग्य होता है। वह दीर्घकालीन देवताओं के आयुष्य में ही हो सकता है। इसलिये वह महान् पुण्य, जीव को दूसरे जन्म में उत्पन्न होने के बाद ही उदय में आता है। यदि इस भव में ही वह प्राप्त हो जाय तो मनुष्य की आयु सामान्य रूप से अल्प होने से तथा मनुष्यशरीर रोगी एवं शीघ्र नाशवान् होने से उसे भोगते हुए मृत्यु हो जाने से वह पुण्य रूपी डोरी बीच में ही टूट जाती है तथा उस बीच मौत रूपी महादुःख भोगना पड़ता है जिसकी तुलना में अन्य कोई दुःख विशेष भयंकर नहीं। ऐसे बड़े पुण्य का फल भोगते हुए बीच में मृत्यु का आ जाना कितना बड़ा अनिष्ट गिना जाता है? जरा सोचो कि . . किसी गाँव की तुच्छ झोंपड़ी में रहने वाला गरीब मनुष्य, परदेश जाकर करोड़ों रुपये कमा कर घर लौट आया। वह क्या इस छोटी झोपड़ी में अपनी अपार दौलत का भोग कर सकेगा? कभी नहीं। उस धन का भोग करने के लिए भव्य महल - हवेली उस स्थान पर बनवानी पड़ेगी। ऐसा करने में उस पुरानी झोंपड़ी का अवश्य नाश करना ही पड़ेगा। झोंपड़ी की तरह तुच्छ मनुष्य का यह शरीर है और करोड़ों की दौलत रुपी उस पूजा का महापुण्य है। जैसे झोंपड़ी में बैठे-बैठे वह पुरुष अपार धन का भोग नहीं कर सकता, वैसे ही इस क्षणभंगुर रोगी, मानव-देह में रहा हुआ जीव महापुण्य का फल नहीं भोग सकता। वह पुरुष जैसे झोंपड़ी छोड़ कर आलिशान महल बनाकर वैभव की सामग्री जुटाता है, वैसे ही जीव भी अपने अल्पकालीन झोंपडी-रूप शरीर को छोड़कर महल रूपी देव आदि के उत्तम शरीर को प्राप्त कर उसके द्वारा पुण्य का स्वाद दीर्घकाल तक भोगता है। जैसे बड़े परिश्रम से प्राप्त मूल्यवान वस्तु लम्बे समय तक भोगते रहने पर भी नष्ट नहीं होती, वैसे श्री जिनपूजादि शुभ कार्यों से उपार्जित पुण्य भी अधिक समय तक भोगते रहने पर भी समाप्त नहीं होता। अतः किसी भी समय कोई उत्कृष्ट भाव आ जाय और पूजा से महापुण्य बँध जाय तो उसी अनुक्रम से उच्च गति में पहुँच जायेंगे, यावत् श्री तीर्थंकर गोत्र का भी बँध जिन-पूजा से होता है। -48
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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