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पासरहावत्तनगं चमरुप्पायं च यंदामि ||2||
"तीर्थंकरदेव के जन्माभिषेक की भूमि, दीक्षा लेने की भूमि, केवलज्ञान उत्पत्ति की भूमि, निर्वाण-भूमि, देवलोक के सिद्धायतन, भुवनपतियों के सिद्धायतन, नन्दीश्वर द्वीप के सिद्धायतन, ज्योतिषी देवविमानों के सिद्धायतन, अष्टापद, गिरनार, गजपद तीर्थ, धर्मचक्र तीर्थ, श्री पार्श्वनाथ स्वामी के सर्वतीर्थ, जहाँ श्री महावीर स्वामी काउसग्ग में रहे, वह तीर्थ, इन सबकी मैं वन्दना करता हूँ।"
श्री भद्रबाहुस्वामी श्री आवश्यकनिर्युक्ति में फरमाते है कि श्री तीर्थंकर देवों का जहाँ जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान, निर्वाण निश्चित रूप से हुआ हो, उस भूमि के स्पर्श से सम्यक्त्व दृढ़ होता है।
श्री महावीर स्वामी के हस्तदीक्षित शिष्य, अवधिज्ञान को धारण करने वाले श्री धर्मदास गणी श्री उपदेशमाला प्रकरण में कहते हैं कि श्रावक जिनराज के पाँचों कल्याणकों के स्थान पर यात्रा के लिये जावें । स्थावर तीर्थ की यात्रा से अन्तःकरण की शुद्धि होती है।
श्री महाकल्प सूत्र में तीर्थयात्रा के उत्तम फल का वर्णन है। यद्यपि अपने रहने के स्थान पर भी मन्दिर होते हैं, पर तीर्थयात्रा में उसकी अपेक्षा विशेष लाभ होता हैं क्योंकि घर पर तो व्यापार, रोजगार, सगे-सम्बन्धी आदि की चिन्ताएँ रुकावट डालती हैं। पूरा दिन उसी के संकल्प-विकल्प में रहने से धर्मध्यान में चित्त स्थिर नहीं रह सकता, परन्तु घर छोड़ने के पश्चात् ये सब उपद्रव दूर हो जाते हैं तथा साथ में अन्य साधर्मिक बन्धु होने से उनके साथ धार्मिक चर्चा से मन प्रफुल्लित होता है; शास्त्र का ज्ञान मिलता है; मार्ग में अनेक गाँव व शहर पड़ते हैं, जहाँ उत्तम साधुजनों तथा सुज्ञ श्रावकों का सम्पर्क मिलने से नवीन शिक्षा तथा बोध की प्राप्ति होती है।
तीर्थभूमि में ऐसे अनेक सज्जनों से मिलने का लाभ होता है तथा उनके समीप रहने से बहुत फायदा होता है। घर पर ऐसे महात्मा व उत्तम पुरुषों का समागम कदाचित् ही मिल पाता है और समयाभाव होने से उनसे विशेष लाभ भी नहीं लिया जा सकता।
तीर्थभूमि पर श्री तीर्थंकर, श्री गणधर तथा अन्य उत्तमोत्तम व्यक्तियों का निर्वाण हुआ है अतः ये याद आते हैं और उनका गुणानुवाद करने का उत्तम प्रसंग मिलता है। यह बुद्धि निर्मल होने का एक विशेष साधन है तथा पूज्य पुरुष जिस राह पर चलकर गुणवान हुए, उस राह पर चलने की हमारी भी इच्छा होती है। उस समय संसार असार सा लगता है तथा उससे विरक्त होकर मन आत्मचिन्तन करता है, परभाव में रमण करने की इच्छा नहीं होती। आत्मिक गुणों को प्रगट करने के अनेक साधन प्राप्त होने से उसमें
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