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श्री भगवती सूत्र में जंघाचारण- विद्याचारण मुनियों के अधिकार में 'चेइयाइ' शब्द है तथा दूसरे बहुत से स्थानों पर वह शब्द प्रयुक्त हुआ है। उसका अर्थ यदि ज्ञान करते हैं तो ज्ञान तो एकवचन में है जबकि 'चेइयाई' बहुवचन में है । अत: वह अर्थ गलत हैं। पुनः श्री नंदीश्वरद्वीप में अरूपी ज्ञान का ध्यान करने के लिए जाने की क्या जरूरत है? अपने स्थान पर बैठे हुए वह ध्यान हो सकता है अतः वहाँ प्रतिमाओं से ही तात्पर्य है ।
अब चैत्य का अर्थ साधु अथवा ज्ञान करने वाले भी कई जगह प्रतिमा का अर्थ करते हैं। उनके थोड़े से दृष्टान्त -
(1) श्री प्रश्नव्याकरण के आस्त्रव द्वार में चैत्य शब्द का अर्थ 'मूर्ति' किया है। (2) श्री उववाई सूत्रमें 'पुण्णभद्द चेइए होत्था।' यहां चैत्य का अर्थ मन्दिर और मूर्ति कहा गया है।
(3) श्री उववाई सूत्रमें 'बहवे अरिहन्त चेइयाइं ।' यहाँ भी मन्दिर और मूर्ति का अर्थ कहा गया है।
(4) श्री भद्रबाहु स्वामीने श्री व्यवहार सूत्र की चूलिका में द्रव्यलिंगी "चैत्य स्थापना'' करने लग जायेंगे, वहाँ "मूर्ति की स्थापना" करने लग जायेंगे, ऐसा अर्थ किया गया है।
(5) श्री ज्ञाता सूत्र, श्री उपासकदशांग सूत्र, श्री विपाक सूत्र में 'पुण्णभह चेइए।' कहकर पूर्णभद्रयक्ष की मूर्ति व मन्दिर का अर्थ कहा गया है। (६) अंतगडदशांग सूत्र में भी जहाँ यक्ष का चैत्य कहा गया है, वहाँ उसका भावार्थ मन्दिर या मूर्ति बताया है।
प्रश्न 59 - कौनसे सूत्र में तीर्थयात्रा का विधान है? और उससे क्या लाभ होता है?
उत्तर - तीर्थ दो प्रकार के है । (1) जंगम तीर्थ यानी चतुर्विध संघ और (2) स्थावर तीर्थ - यानी श्री शत्रुंजय, गिरनार, नन्दीश्वर, अष्टापद, आबू, सम्मेतशिखर आदि - जिनकी यात्रा जंघाचारण मुनिवर भी करते हैं, ऐसा श्री भगवतीजी सूत्र में फरमाया है। श्री गौतमस्वामीजी भी अष्टापद पर गये थे।
कर्मशत्रु को जीतने वाला, ऐसा जो शत्रुंजय पर्वत है, वहाँ से अनन्त जीव मोक्ष गये हैं, ऐसा श्री ज्ञाता सूत्र में कहा गया है।
श्री आचारांग सूत्र में दूसरे श्रुतस्कन्ध में निम्नांकित तीर्थभूमि बताई है। जम्माभिसेय-निक्स्खमण-चरण नाणुप्पायनियाणे | दियलो अभवणमंदरनंदीसरभोमनयरेसु ||1|| अट्ठावयमुज्जिते गयग्गपयए य धम्मचक्के य ।
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