SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्न 58 - 'चैत्य' शब्द का अर्थ कितने ही 'साधु' अथवा 'ज्ञान' करते हैं। क्या यह उचित है? उत्तर - 'चैत्य' का अर्थ 'साधु' या 'ज्ञान' किसी प्रकार नहीं हो सकता तथा शाख के सम्बन्ध में वह अर्थ उपयुक्त भी नहीं। साधु की जगह तमाम सूत्रों में “साहु या साहुणी या" "भिक्खु या भिक्षुणी या" ऐसा कहा है, पर - "चैत्यं या चैत्यानि या।" ऐसा तो कहीं भी नही कहा है तथा भगवान श्री महावीर स्वामी के चौदह हजार साधु थे, ऐसा कहा है, पर 'चौदह हजार चैत्य थे', ऐसा नहीं कहा। इस प्रकार अन्य सभी तीर्थंकरों, गणधरों, आचार्यों आदि के 'इतने हजार साधु थे', ऐसा कहा है पर 'चैत्य थे' ऐसा शब्द किसी जगह नहीं है। तथा चैत्य शब्द का अर्थ 'साधु' करें तो साध्वी के लिए नारी जाति में कौनसा शब्द उसमें से निकल सकेगा। कारण कि चैत्य शब्द स्त्रीलिंग में बोला नहीं जाता। श्री भगवती सूत्र में (1) अरिहन्त, (2) साधु और (3) चैत्य ऐसे तीन शरण कहे हैं। वहाँ जो 'चैत्य' शब्द का अर्थ 'साधु' करें तो उसमें 'साधु' शब्द अलग से क्यों कहा? तथा ज्ञान कहें तो अरिहन्त शब्द से ज्ञान का संग्रह हो गया, क्योंकि ज्ञान रूपरहित है, वह ज्ञानी के सिवाय होता नहीं इसलिये चैत्य से जिनप्रतिमा का ही अर्थ निकलता है। "अरिहन्त'' ऐसा अर्थ भी संभव नहीं क्योंकि - "अरिहन्त' भी प्रथम साक्षात् शब्द में कहा हुआ है। 'चैत्य' शब्द का अर्थ 'ज्ञान' करना, यह भी सर्वथा असत्य है क्योंकि श्री नंदीसत्रादि में जहाँ-जहाँ पाँच प्रकार के ज्ञान का अधिकार है वहाँ-वहाँ - "नाणं पंचयिंह पण्णत्ता" ऐसा कहा है पर - । "चेइयं पंचयिंह पण्णत्तं।" ऐसा तो कहीं नहीं लिखा। तथा उसका नाम मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान तथा केवलज्ञान कहा है पर मतिचैत्य, श्रुतचैत्य अथवा केवलचैत्य इत्यादि किसी जगह नहीं लिखा तथा उस ज्ञान के स्वामी को मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, केवलज्ञानी इत्यादि शब्दों से परिचित करवाया है न कि मतिचैत्यी, श्रुतचैत्यी अथवा केवलचैत्यी शब्दों से। किसी को जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ तो उसे 'जातिस्मरणज्ञान' हुआ, ऐसा कहा है पर 'जातिस्मरणचैत्य' उत्पन्न हुआ, ऐसा नहीं लिखा। -----[144
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy