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________________ धर्म का विरह रहा है, तो इतने असंख्य काल तक मनुष्य लिखित नाम रहे या नहीं? अवश्य रहे। तो फिर शंखेश्वर पार्श्वनाथ आदि की मूर्तियाँ देवता की सहायता से रहें, इसमें क्या आश्चर्य हैं? ऋषभकूट आदि पहाड़ शाश्वत हैं, पर नाम तो बनावटी है। यदि नाम भी शाश्वत हों तो उनको कोई नहीं मिटा सकता। फिर कोई कहता है कि - पृथ्वीकाय तो 22000 वर्ष से अधिक नहीं रहते तो क्या देवता आयुष्य बढ़ाने में समर्थ हैं? उसके उत्तर में कहना है कि - मूर्ति पृथ्वीकाय जीव नहीं है; निर्जीव वस्तु है। अनुपम देवभक्ति के द्वारा उसे असंख्य वर्षों तक भी रखा जा सकता है, क्योंकि जैन शास्त्रानुसार किसी भी पुद्गल द्रव्य का अनन्तकाल तक भी सर्वथा नाश नहीं होता। अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा सभी पुद्गल शाश्वत हैं; पर्याय की अपेक्षा अशाश्वत हैं। जैसे पर्वत में से पत्थर का एक टुकड़ा लो तो उस टुकड़े का पर्याय बदलेगा पर पूर्णतया नष्ट तो किसी काल में भी नहीं होगा। उसी रीति से तमाम पुद्गलों को समझना चाहिए। पुनः श्री जंयुद्धीप-प्रज्ञप्ति में अवसर्पिणी काल के पहले आरे का वर्णन करते हुए कहा है कि____ "घने जंगलों, वृक्षों, फूल-फलों से सुशोभित, सारस-हंस आदि जानवरों से भरपूर, ऐसी बावड़ियों तथा पुष्करिणी और दीर्घिकाओं से श्री जंबूद्वीप की शोभा हो रही है।" सोचो कि पहले आरे में ये बावड़ियाँ आदि कहाँ से आई? इस भरतक्षेत्र में नौ कोड़ाकोड़ी सागरोपम से तो युगलिक रहते थे। युगलिक तो बावड़ियाँ आदि बनाते नहीं हैं, अतः यदि वे शाश्वत नहीं हैं, तो फिर उन्हें किसने बनाया? .. जिस प्रकार से बावड़ियाँ असंख्य वर्षों से कायम रहीं तो फिर देवताओं की सहायता से मूर्तियाँ भी कायम कैसे न रहें? प्रश्न 57 - चैत्य शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है? उत्तर - श्री सुधर्मास्वामी के परम्परागत आचार्यों ने 'चैत्य' शब्द का जो अर्थ लिखा है वह भगवान महावीर द्वारा कथित है। परम उपकारी कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य ने अपने, 'अनेकार्थसंग्रह' में इस प्रकार अर्थ किया है। 'चैत्यं जिनौकस्तयियं, चैत्यो जिनसभातला' अर्थ- चैत्य कहने से (1) जिनमन्दिर (2) जिनप्रतिमा (3) जिनराज की सभा का चौतराबंध वृक्षा इसके सिवाय दूसरा अर्थ शास्त्र में नहीं है तथा होता भी नहीं। अमरकोश अथवा अन्य कोई भी कोशग्रन्थ देखो, उनमें इसके सिवाय दूसरा अर्थ नहीं कहा है। अतः इसके सिवाय मनगढन्त अर्थ करने वालों को झूठा समझना चाहिये। सूत्रपाठों में जहाँ जहाँ उस शब्द का प्रयोग हुआ है, वहाँ वहाँ दूसरा अर्थ लागू हो ही नहीं सकता। -[143 143
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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