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(22) श्री रत्नशेखर सूरिकृत श्री श्राद्धविधि। (23) श्री रत्नशेखर सूरिकृत श्री आचार प्रदीप। (24) कक्कसूरिकृत श्री नवपद प्रकरण। (25) श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कृत श्री विशेषावश्यक महाभाष्य। (26) मल्लधारी श्री हेमचन्द्राचार्य विरचित महाभाष्य वृत्ति (27) मल्लधारी श्री हेमचन्द्राचार्यकृत पुष्पमाला। (28) श्री अभयदेवसूरिकृत पंचाशकवृत्ति। (29) श्री ज्ञातासूत्र। (30) श्री ठाणांग सूत्र। (31) श्री राथपसेणी सूत्र। (32) श्री जीवाभिगम सूत्र। (33) श्री महप्पत्याख्यान सूत्र। (34) श्री महानिशीथ सूत्र। (35) श्री देवसुन्दरसूरिकृत सामाचारी प्रकरण। (36) श्री सोमसुन्दरसूरिकृत सामाचारी प्रकरण। (37) श्री जिनपतिसूरिकृत सामाचारी प्रकरण। (38) श्री अभयदेवसूरिकृत सामाचारी प्रकरण। (39) श्री जिनप्रभसूरिकृत सामाचारी प्रकरण।
इस प्रकार सैकड़ों आचार्यों के प्रामाणिक ग्रन्थों के आधार पर मूर्तिपूजा की जाती है। अब इनमें से कौनसे आचार्यों को सावधाचार्य कहा जाय? कदाचित् ऐसा कहा जाय कि - 'पूर्वधरों के समय में ज्ञान कण्ठस्थ था पर बाद में उसे पुस्तकारूढ़ करने में आया, अतः मानने में शंका रहती है' - परन्तु यह कहना यथार्थ नहीं है, क्योंकि उस समय में भी पुस्तकों के सर्वथा अभाव का उल्लेख कहीं नहीं है। क्या श्री ऋषभदेव स्वामी द्वारा चलाई गई लिपि का विच्छेद हो गया था? यदि हाँ! तो फिर लोगों के काम किस तरह चलते होंगे?
फिर दूसरा प्रमाण यह है कि श्री वीर प्रभु के 980 वर्ष पश्चात् श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणादि सैकड़ों आचार्यों ने मिलकर एक करोड़ से भी अधिक पुस्तके बनाई। उस समय आचार्यों से परम्परागत प्रज्ञान अविच्छिन्न सप से पुस्तकों में बराबर यथातथ्य उतारने में आया, उसमें से बहुत से प्रथ, जो सैकड़ों वर्ष पूर्व के लिखे हुए हैं, ज्ञान-भंडारों में मौजूद हैं।
उस समय उन आचार्यों के कोई प्रतिपक्षी हए हों तो उनकी तरफ से भी उस समय की लिखी पुस्तके प्रमाण रूप में मौजूद होनी चाहिए, पर ऐसा लगता नहीं. तो फिर धर्म के
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