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________________ औषधि ग्रहण की। (8) श्री मल्लिनाथस्वामी अवेदी थे, परन्तु लोक-व्यवहार को मान्य रखने के लिए वे स्त्रियों के साथ ही बैठते। (9) राग से यचने के लिए साधु को चातुर्मास के सिवाय अकारण एक स्थान पर एक महीने से अधिक नहीं रहना चाहिए परन्तु जो मोहराग बँधने का होता है तो रहनेमि की तरह एक घड़ी में भी यँध सकता है। फिर भी एक महीने से अधिक रहने पर ही व्यवहार का भंग गिना जाता है, अन्यथा नहीं। इस प्रकार व्यवहारमार्ग-प्रधानता के अन्य भी सैकड़ों उदाहरण हैं। श्रावक का शुद्ध व्यवहार रात्रिभोजन आदि का त्याग हैं। जो इस व्यवहार को तोड़ते हैं वे स्वयं भी अवश्य तत्काल नष्ट हो जाते हैं और जो शुद्ध व्यवहार को अंगीकार करते हैं, वे मोक्षफल प्राप्त करते हैं। प्रश्न 55 - यारह वर्षीय दुष्काल पड़ने के समय सायद्याचार्यों ने उपदेश देकर मूर्तिपूजा करयाना प्रारम्भ किया है, उसके पहले तो कुछ था ही नहीं, ऐसा कई कहते हैं। क्या यह ठीक है? उत्तर- श्री महावीर स्वामी की बीसवीं पट्ट-परम्परा में श्री स्कन्दिलाचार्य हुए और उनके समय में बारह वर्षीय दुष्काल पड़ा था। अब जो उनके बाद हुए आचार्यों ने मूर्तिपूजा चलाई हो तो श्री देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण तो भगवान महावीर की सत्ताईसवीं पट्ट-परम्परा में हुए हैं; अतः उनको भी सावधाचार्यों में शामिल करना पड़ेगा और उस समय अन्य सैकड़ों आचार्यों ने एकत्र होकर करोड़ों ग्रन्थों की रचना की अतः उन तमाम ग्रन्थों को भी निरर्थक मानना पड़ेगा। और यदि ऐसा हो तो जैनधर्म रहेगा ही कहाँ? एक मूर्ख व्यक्ति भी समझ सकता है कि दुष्काल वर्ष में नैवेद्यादि पूजा का खर्च बढ़ाने के उपदेश का प्रचार कैसे बढ़ सकता है? उस समय लोग खर्च घटाने के उपदेश को ही ग्रहण करते हैं। और मूर्ति के सामने रखा हुआ अन्न आदि साधु के काम नहीं आता, यह बात क्या उस समय लोग नहीं जानते थे? साधु अपने स्वार्थवश ऐसा उपदेश करे तो भी उस समय का समाज उसे कैसे चलने देगा? नैवेद्य पूजा आदि उस समय शुरू हुई तो मूर्ति तो पहले थी ही, यह तो सिद्ध हो गया। __साक्षात् सरस्वती आदि तथा अन्य देवी-देवता जो हर समय जिन महात्माओं की सेवा में उपस्थित रहते थे, ऐसे शासनप्रेमी धुरन्धर आचार्यों को स्वार्थी मा ग तथा आज-कल के निर्बुद्धि पुरुषों को नि:स्वार्थी कहना कितना असंगत है? लाखों वर्षों से विद्यमान मूर्तियाँ तथा हजारों वर्ष पूर्व लिखित पुस्तकें अप्रामाणिक एवं आधुनिक मनघड़न्त कल्पनाएँ प्रामाणिक, 137
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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