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________________ शुभानुवन्धी और अत्यन्त निर्जरा फल को देने वाली है। जैसे दयालु डॉक्टर रोगी व्यक्ति पर दया लाकर, उसका रोग दूर करने के लिए नाना प्रकार की कड़वी औषधियाँ देता है अथवा उस रोगी के शरीर की शल्यक्रिया करता है, जिससे उसे अत्यन्त पीड़ा होता है। उससे हैरान होकर भी वह अपने परोपकारी डॉक्टर की निन्दा नहीं करता और इसी तरह अन्य लोग भी उस डॉक्टर को निर्दयी अथवा पापी नहीं कहते, क्योंकि डॉक्टर का काम तो रोग दूर करना होता है, उसे किसी प्रकार हिंसक अथवा अधर्मी नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि श्रावक एकेन्द्रिय जीवों पर अनुकम्पा लाकर, उनके मिथ्यात्व रूपी रोग को दूर करने के लिए उनको भगवान के चरण कमलों में पहुँचाता है। अतः वे पुष्पादि वस्तुएँ तो धन्य हैं कि उनका ऐसे उत्तम कार्य में उपयोग हुआ। उन वस्तुओं का ऐसा अहोभाग्य कहाँ कि जिससे उनको परमेश्वर के चरण-कमलों का स्पर्श हो अथवा वहाँ आश्रय मिले। धर्मदाता गुरु महाराज भी शिष्य के अज्ञान रुपी अन्धकार को हटाने के लिए उसकी नाना प्रकार से ताड़ना करते हैं, उस पर क्रोध करते हैं, शिष्य को प्रत्यक्ष कष्ट देते हैं, फिर भी उनको कोई बुरा या निर्दय नहीं कहता, पर उलटी उनकी प्रशंसा ही करते हैं। ऐसा ही श्री जिनपूजा के लिए उपयोग में आने वाले एकेन्द्रिय जीवों के विषय में भी समझना चाहिए। प्रश्न 49 - तीर्थंकर देव के समयसरण में देवतागण फूलों की दृष्टि करते हैं। ये सचित्त हों तो साधु से उनका संघट्टा कैसे हो सकता है? उत्तर- श्री समयायांग तथा श्री रायपसेणी सूत्र में स्पष्ट कहा है कि 'जलज थलज' इत्यादि शब्दों से जल में उत्पन्न कमलादि तथा स्थल अर्थात् जमीन पर उत्पन्न जाई, जुई, केवड़ा, चंपा, गुलाब आदि पाँच रंगों के फूलों की, कंद नीचे तथा मुख ऊपर ऐसे जानु-प्रमाण फूलों की वृष्टि होने का उल्लेख है। इससे वे फूल अचित नहीं पर सचित्त ही साबित होते हैं। ऊपर के सूत्रों में लिखा है कि 'पुप्फयहलए विउव्यंति' अर्थात् फूलों के बादल बनाए हैं, परन्तु फूल नहीं बनाए। इससे भी वैक्रिय फूल सिद्ध नहीं होते। अब सचित्त फूल का स्पर्श साधु कैसे करे? इसके उत्तर में कहना है कि घुटनों तक फैले हुए फूलों को साधु अथवा अन्य किसी व्यक्ति से जरा भी बाधा नहीं पहुँचती, ऐसा भगवान का.अतिशय है। जिनके प्रभाव से शेर तथा हिरण, बिल्ली तथा चूहा, चीता तथा बकरी इत्यादि जानवर अपने जातिस्वभाव के पारस्परिक वैर को भी भूल कर धर्म का उपदेश सुनते हैं। उसके प्रभाव से पुष्प के जीवों को कष्ट न हो तो, इसमें आश्चर्य किस बात का? 130
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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