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"पंच आसयदारा पन्नता, तं जहा - (1) मिच्छत्त (2) अविरई (3) पमाओ (4) कषाय (5) जोगा"
अर्थ - पापबन्ध के पाँच कारण बताये हैं (1) मिथ्यात्व (2) अविरति (3) प्रमाद (4) कषाय और (5) योग
जबकि प्रभु-पूजा शान्त चित्त से, सम्यक्त्वसहित प्रमादरहित एवं विधिपूर्वक होने से मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद तथा कषाय आदि चार प्रकार से कर्मबन्ध होना तनिक भी सम्भव नहीं है। पाँचवाँ “योग'' निमित्त रहा। श्री भगवती सूत्र में (1) शुभ योग तथा (2) अशुभ योग - योग के ऐसे दो प्रकार बताये हैं। शुभ योग पुण्यबन्ध का तथा अशुभ योग पापबन्ध का कारण है।
श्री जिनपूजा में किसी प्रकार की निन्दा अथवा अवर्णवाद आदि न होने से अशुभ योग तो कहा ही नहीं जा सकता। केवल श्री जिनेश्वरदेव की भक्ति, गुणगान, स्तुति आदि के कारण शुभ योग ही कहा जाता है और जितनी मात्रा में वह होगा, उतनी ही मात्रा में शुभ बन्ध पड़ेगा। क्योंकि कारण बिना कार्य पैदा नहीं होता। द्रव्यपूजा में अशुभबन्ध के कारण का अभाव होने से शुभ फल ही होता है।
तर्क - ऐसे तो धर्म के निमित्त मांसाहार करते हुए भी कोई शुभ भाव रखे, तो उसे भी पाप नहीं लगना चाहिए।
समाधान - यदि मांसाहार करने से बुद्धि तथा परिणाम शुद्ध रहते हों तो सर्वज्ञ परमात्मा को भक्ष्याभक्ष्य का भेद बताने की जरूरत ही नहीं होती। विद्वान् डॉक्टर भी मांसाहार को अच्छी बुद्धि-प्रदायक नहीं मानते। इसके विपरीत वे इसका निषेध करते हैं।
अन्न, जल आदि भक्ष्य पदार्थ पौष्टिक तथा शारीरिक एवं मानसिक बल की वृद्धि करने वाले हैं, जबकि मांस, मदिरा आदि अभक्ष्य वस्तुएँ विकार करने वाली, रोग बढ़ाने वाली, शरीर तथा मन को बिगाड़ने वाली तथा कुबुद्धि और निर्दयता का कारण होने के कारण अग्राह्य है। उनके खाने से शुभ भावना कैसे हो सकती है? "अन्न जैसी डकार" "और जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन'' कहावतों को भूलना नहीं चाहिए।
एकेन्द्रिय तो केवल अव्यक्त चेतना वाले हैं। उनकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय अनन्तगुण पुण्यशाली है। इस प्रकार क्रमश: पंचेन्द्रिय जीयों की पुण्याई उनसे अनन्तगुणी है। तो उनको मारने से पाप भी एकेन्द्रिय की अपेक्षा अनन्तगुणा विशेष है।
और उनको मारने में तीक्ष्ण शस्त्र का उपयोग करते समय क्रोध तथा निर्दयता करनी पड़ती है। जिससे निष्ठुर परिणाम तो प्रारम्भ में ही हो चुके होते हैं तथा मांस में समय-समय पर पंचेन्द्रिय (समूर्छिम) जीवों की उत्पत्ति तथा विनाश हुआ करता है। इसी कारण
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