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________________ दया तथा हिंसा का परमार्थ स्वरूप क्या है? उसे समझना चाहिए। शास्त्रों में हिंसा तथा अहिंसा तीन-तीन प्रकार की कही है। हिंसा के तीन प्रकार हैं(1) हेतु हिंसा (2) स्वरूप हिंसा (3) अनुबन्ध हिंसा वैसे ही अहिंसा के भी तीन प्रकार हैं - (1) हेतु अहिंसा (2) स्वरूप अहिंसा (3) अनुबन्ध अहिंसा जिनमें जीवहिंसा हुई नहीं, पर जीव-रक्षा के प्रयत्न का अभाव है, उसे हेतु हिंसा कहा जाता है। जिसमें जीव-रक्षा का प्रयत्न होते हुए भी जीववध हुआ है, उसे स्वरूप हिंसा कहा जाता है एवं जिसमें जीव का वध भी है तथा जीव-रक्षा का प्रयत्न भी नहीं है, वह अनुबन्ध हिंसा कहलाती है। इसी प्रकार अहिंसा के लिए भी समझ लेना। . श्री जिनपूजादि धर्मकार्य में स्वरूप-हिंसा है, पर हिंसा का भाव न होने के कारण अनुबन्ध, अहिंसा का पड़ता है। जब तक मन, वचन और काया के योग से सम्पूर्ण स्थिरता नहीं हो जाती तब तक बोलते, उठते ऐसे प्रत्येक कार्य करते आरम्भ तथा उससे अल्पाधिक कर्मबन्धन होता ही रहता है। ऐसी दशा में सर्वथा अहिंसा किसी भी कार्य में किस प्रकार हो सकती श्री ठाणांग सूत्र के चौथे ठाणे में चतुर्भगी कही है - (1) सावध व्यापार और सावध परिणाम (2) सावध व्यापार और निरवद्य परिणाम (3) निरवद्य व्यापार और सावध परिणाम (4) निरवद्य व्यापार और निरवद्य परिणाम इसमें प्रथम विभाग मिथ्यात्व के आश्रित है। दूसरा विभाग सम्यग्दृष्टि तथा देशविरति श्रावक का है क्योंकि श्रावक के योग्य देवपूजा, साधुवन्दन आदि धार्मिक कार्यों में दिखने में तो वे सावध व्यापार मालूम होते हैं, पर उनमें श्रावक के परिणाम, हिंसा के न होने के कारण वह केवल स्वरूप-हिंसा है। जिसका पाप आकाश-कुसुम की तरह आत्मा को लग ही नहीं पाता। तीसरा विभाग श्री प्रसन्नचन्द्र राजर्षि जैसे का जानना और चौथा विभाग सर्वविरति साधु सम्बन्धी है। द्रव्यपूजा करने से हिंसा का पाप लगने का कोई कारण नहीं है।' ___ श्री ठाणांगसूत्र के पाँचवें ठाणे के दूसरे उपदेश में कर्मबन्धन के पाँच द्वार बताए ___[127 127
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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