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________________ अहिंसक भाव मानोगे तो सूक्ष्म एकेन्द्रिय (लोकव्यापी पाँच स्थावर) में शुद्ध अहिंसक भाव मानना चाहिए क्योंकि वे बिचारे तो हिंसा का नाम निशान भी नहीं समझते और किसी भी जीव की पीड़ा में निमित्त नहीं बनते। इसलिए वे ही शुद्ध, अहिंसक सिद्ध होंगे और यदि वे अहिंसक सिद्ध होते हैं, तो सर्वप्रथम मुक्ति भी उन्हीं जीवों की होनी चाहिए। परन्तु ऐसी विपरीतता तीन काल में सम्भव नहीं। अतः सच्ची अहिंसा की व्याख्या, जीव को नहीं मारना। इतनी ही नहीं, किन्तु 'विषय-कषाय रूप प्रमाद के योग से जीव को नहीं मारना' इसी का नाम सच्ची अहिंसा है। श्री जिनपूजा में प्रमाद का अध्यवसाय नहीं, पर भक्ति का शुभ अध्यवसाय है और इसलिये उसे जैन शास्त्रानुसार हिंसा कभी भी नहीं कही जा सकती। इस प्रकार जो व्यक्ति द्रव्य तथा भाव अहिंसा का स्वरूप जानकर अहिंसा का आदर करता है वही सच्चा अहिंसक गिना जाता है। कितने ही कार्यों में प्रत्यक्ष हिंसा होते हुए भी उन-उन कार्यों को ऐसे-ऐसे प्रसंगों पर आदर देने की आज्ञा, शास्त्रकारों ने साधु को फरमाई है। जैसे कि . (१) श्री भगवतीजी में कहा है कि श्री संघ का कारण आ पड़े तो लब्धिवंत साधु, तलवार हाथ में लेकर आकाश मार्ग से जाए। (2) श्री ठाणांगसूत्र तथा श्री बृहत्कल्पसूत्र में कहा है कि कीचड़ में तथा जल में फँसी हुई साध्वी को बाहर निकालने पर भी साधु जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं करता तथा साधु-साध्वी के पैर में काँटा अथवा कील चुभ जाय या आँख में धूल गिर जाय और कोई निकालने वाला नहीं हो तो वे आपस में भी निकालें। (3) श्री सूयगडांग सूत्र में कहा है कि कारणवश आधाकर्मी आहार लेने में साधु को दोष नहीं लगता।. (4) श्री आचारांग सूत्र में साधु को नदी में उतरने की तथा खड़े में गिर जाय तो पेड़ की डाल अथवा घास आदि को पकड़कर बाहर निकलने की आज्ञा है। (5) श्री उद्यवाई सूत्र में कहा है कि शिष्य की परीक्षा लेने के लिए गुरु उस पर झूठे दोष लगाये। अब यदि प्रत्यक्ष जीवों को नहीं मारना, इसी को अहिंसा कहोगे तो पंचमहाव्रतधारी साधु को तो तीनों प्रकार की हिंसा का पच्चक्खाण है फिर भी उसे उपर्युक्त कार्य करने को कहा गया है, तो इसका क्या? इसमें तुम जैसी हिंसा कहते हो वैसी हिंसा तो स्पष्ट रूप से रही हुई ही है। अतः साधु जो उपर्युक्त आज्ञाविरहित कार्य करे तो क्या उससे, उसके व्रतों का खण्डन होगा या नहीं? फिर तुम कहते हो कि खाते-पीते, उठते-बैठते भी ऐसी हिंसा तो होती ही है, तो उसके अनुसार वे हिंसक हैं या अहिंसक? भगवान ने तो इस प्रकार जीवों 124
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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