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शीलधर्म सिद्ध होता है। .
तीसरा तपधर्म - तप छह बाह्य तथा छह आभ्यन्तर भेद से बारह प्रकार का होता है। उसमें जिनप्रतिमा को पूजते समय पूजनकाल में चारों प्रकार के आहार का त्याग होने से बाह्य तप हुआ तथा भगवान का विनय, वैयावच्च, ध्यान आदि करने से आन्तरिक तप हुआ।
चौथा भावधर्म - शुभ भावना होने के कारण ही श्रावक पूजा करता है। हजारों, लाखों रुपये खर्च करके मन्दिर आदि बनवाना, बिना भाव के प्रायः अशक्य है। पूजन करते समय श्री तीर्थंकर देवों के पाँचों कल्याणकों की भावना करना भी भावधर्म है।
इस प्रकार विवेकपूर्वक विचार करने से हम समझ सकते हैं कि श्री जिनेश्वर की मूर्तिपूजा में भी चारों प्रकार के धर्मों की एक साथ आराधना होती है।
प्रश्न-47 - "आरम्भे नत्थिदया।" यह सूत्र वचन है जिसके अनुसार दया में ही धर्म है पर आरम्भ में नहीं। श्री जिनपूजा में तो आरम्भ होता है तो फिर उससे धर्म कैसे हो सकता है?
उत्तर - मात्र एक पद बोलकर शेष गाथा छोड़ देने से अर्थ का अनर्थ होता है। पूरी गाथा का पूर्वापर सम्बन्ध मिलाकर अर्थ करने से ही सत्य पदार्थ का ज्ञान होता है। वह पूरी गाथा ऐसा अर्थ बताती है कि 'आरम्भ में दया नहीं, सआरम्भ बिना महापुण्य नहीं, पुण्य के बिना कर्म की निर्जरा नहीं तथा कर्म की निर्जरा बिना मोक्ष नहीं।'
ऐसा कौनसा कार्य है जिसमें आरम्भ अर्थात् द्रव्यहिंसा न होती हो? परन्तु क्रिया की प्रशस्तता तथा उस समय आत्मा के भाव आदि खास सोचने चाहिए। शुभ भाव. में रहने से पाप नहीं होता। इसके लिए श्री भगवती सूत्र में फरमाया है कि -
"शुभ जोगपडुच्च अणारंभा"
अर्थात् जहाँ मन, वचन और काया का शुभ योग होता है, ऐसे आरम्भ को श्री तीर्थंकर देव अनारम्भ कहते हैं। इससे कर्म बंधन नहीं होता।,
साधु पदी उतरता है, विहार करता है, गोचरी करता है, पडिलेहण करता है, ये सभी कार्य वह जान-बूझकर करता है। अगर अनजान में करने का कहोगे, तो बड़ा दोष लगेगा क्योंकि साधु को यदि करने व न करने योग्य कार्य का ज्ञान ही नहीं, तो वह शंकारहित सम्यग्दृष्टि किस प्रकार कहलायेगा? जैसे उन कामों में भगवान की आज्ञा है और साधु शुभ भाव में होने से कर्म नहीं बांधते, वैसे ही श्रावक को भी द्रव्यपूजा में तथा साधु को आहार देने में श्री जिनाज्ञा है। उसमें जो हिंसा दिखाई देती है वह, स्वरूप हिंसा होने से तथा उसका परिणाम, हिंसा का न होकर देवगुरु की भक्ति का होने से अनारम्भी होती है।
यहाँ ऐसा कहोगे कि 'द्रव्य पूजा में तो प्रत्यक्ष हिंसा दिखाई देती है तो उसमें धर्म कैसे हो सकता है ? तो ऐसा कहना भी उचित नहीं।' 'प्रत्यक्ष जीव को नहीं मारना' इसी को यदि
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