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________________ की हिंसा होने पर भी यतनावान् साधुओं को आराधक कहा है। धर्म के निमित्त शुभ भाव से कोई काम करते हुए हिंसा होती है, उसको भी शास्त्रकारों ने विराधक नहीं माना है। साधु को जब इस प्रकार अधिक लाभ देखकर हिंसायुक्त लगने वाले कार्यों को भी करने की अनुमति है, तो श्रावक को धर्म के निमित्त आरम्भ करते पाप लगे, ऐसा कैसे हो सकता है? ऐसे कार्यों को तो भगवान् शुभानुबन्धी कहते हैं। जैसे कि - (1) सूर्याभदेव के सामानिक देवताओं ने समवसरण आदि रचकर भक्ति करने की,अपनी इच्छा भगवान को बताई थी। तब भगवान ने कहा कि, तुम्हारा यह धर्म है। मैंने तथा अन्य तीर्थंकरों ने इसके लिए अनुज्ञा दी है, आदि। एक योजन प्रमाण जमीन साफ करने में असंख्य वायुकाय, वनस्पति काय और त्रसकाय तथा अन्य जीव-जन्तुओं का संहार होता है और फिर भी उसमें देवताओं की भक्ति को प्रधान मानकर भगवान ने उसके लिए आज्ञा दी है। (2) श्री रायपसेणी सत्र में चित्र मंत्री, कपट करके घोडा दौडाकर, प्रदेशी राजा को श्री केशी गणधर महाराज के पास उपदेश दिलाने ले गया। उसमें अनेक जीवों का संहार होने पर भी परिणाम शद्ध होने से उसके इस कार्य को धर्म की दलाली कहा गया है न कि पाप की दलाली। (3) उसी प्रकार श्रीकृष्ण महाराज ने दीक्षा की दलाली की और उसको भी पाप की दलाली न कहकर धर्म दलाली ही कहा गया है। (4) श्री ज्ञातासूत्र में श्री सुबुद्धिप्रधान ने श्री जितशत्रु राजा को समझाने के लिए गंदा पानी साफ करने हेतु हिंसा की, उसे भी धर्म के लिए कहा गया है। ' (5) किसी को दीक्षा लेने की इच्छा है। उसे ओघा, मुहपत्ति, वस्त्र, पात्र की जरूरत है। यदि ये वस्तुएँ कोई श्रावक देता है, तो उसमें धर्म है या अधर्म? ___(6) साधु का आगमन जानकर दूर तक सामने जावे, विहार करते जानकर रोकने जावे, सैकड़ों कोस दूर तक वन्दन करने जावे, कल्प्य वस्तुओं की व्यवस्था कर दे, दीक्षामहोत्सव, मरणमहोत्सव आदि करे, इन सब कामों में पंचेन्द्रिय तक के जीवों की प्रत्यक्ष हिंसा होती है। फिर भी ऐसा करने में धर्म होता है अथवा अधर्म? ___(7) श्री मल्लिनाथ स्वामी ने छह राजाओं को प्रतिबोध देने के उद्देश्य से मोहनघर बनाकर अपने ऊपर के मोह को दूर करने के लिए अपने स्वरूप की एक प्रतिमा खड़ी की तथा उसमें नित्य आहार पानी डालते, उसमें लाखों जीवों की उत्पत्ति हुई और उनका नाश हुआ फिर भी भगवान को उसका पाप नहीं लगा। वे तो उसी भव में मोक्ष में गए। उससे यदि पापवृद्धि होती तो वे ऐसा क्यों करते तथा करने पर भी मोक्ष कैसे प्राप्त करते? -[125
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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