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लेते तो फिर उनकी मूर्ति के सामने यना हुआ, विकाऊ लाया हुआ अथवा सामने लाया हुआ आहार कैसे रखा जाता है?
उत्तर - आधाकर्मी आहार न लेने सम्बन्धी विचार तो दीक्षा लेने के बाद का है और नैवेद्यादि द्रव्यपूजा तो उसके पूर्व की अवस्था का विषय है, यह समाधान ऊपर हो चुका है। जैसे साधु होने वाले व्यक्ति को घर-घर भोजन कराया जाता है पर साधु होने के बाद नहीं अर्थात् नैवेद्यादि पूजा, द्रव्यनिक्षेप के आश्रित है, भावनिक्षेप के आश्रित नहीं। जैसे इन्द्रदेव तथा अन्य देव भगवान के जन्म-महोत्सव के समय कई उत्तम द्रव्यों में प्रभु की अर्चना करते हैं तथा बाद में भी देवतागण बारम्बार ऐसी भक्ति करते हैं, वैसे ही प्रभु की छद्यावस्था के कारण उपर्युक्त भक्ति का विधान है। अत: उसमें दोषारोपण करना व्यर्थ है।
प्रश्न 44 - छोटी सी मूर्ति के आगे नैवेद्य के ढेर लगा दिए जाते हैं। क्या यह अनुचित नहीं है? क्या मूर्ति को खाने की आवश्यकता रहती है?
उत्तर - यह प्रश्न सर्वथा व्यर्थ है। नैवेद्य, मूर्ति के खाने के लिए नहीं रखा जाता, किन्तु पूजा करने वाला अपनी भक्ति के लिए ऐसा करता है। पूज्य को इससे कोई प्रयोजन नहीं रहता।
मूर्ति खाती नहीं, इसीलिए उसके सामने ..गति करने की है कि “हे प्रभो! आप निर्वेदी तथा सदा अनाहारी हो। आपके सामने में यह आहार इस भाव से रखता हूँ कि मैं इस आहार तथा नैवेद्य का बिल्कुल त्याग क - लिए आपक जैसा अनाहारी पद (मोक्ष) प्राप्त करूँ तथा हे देवाधिदेव! यह आहार कि पापारम्भ करके तैयार किया है और यह आहार यदि मैं खाऊंगा तो फिर इसके आम्वादन से मुझमें राग-द्वेष की भावना जाग्रत होगी। जितना आहार मैं आपको अर्पित करूंगा, उतनी आहार मम्वन्धी रागद्वेष की भावना कम होगी, भक्ति का लाभ मिलेगा तथा परम्परा से मुक्तिफल का स्वाद चखने का सौभाग्य भी प्राप्त होगा।
प्रश्न 45 - भगवान् अपरिग्रही हैं। उनके सामने पैसे आदि रखकर उन्हें परिग्रही यनाने की क्या आवश्यकता है?
उत्तर - यह कुतर्क भी ऊपर जैसा ही है फिर भी इस पर पुन: विचार करें। पहले तो परिग्रह किसे कहा जाता है ? खान, पान, वस्त्र-अलंकार, धन-धान्य आदि आठ स्पर्श वाले पुद्गल हैं, नजरों से जिन्हें देखा जा सकता है, एक-दूसरे को दिये जा सकते है। परन्तु अठारह पापस्थानकों के पुद्गल चार स्पर्श वाले हैं, जिनको केवली भगवान के सिवाय अन्य कोई देख नहीं सकता और इससे पाप के पुद्गल एक दूसरे के देने से दिये नहीं जा सकते। परिग्रह पाँचवाँ पापस्थानक है। मोह, ममत्व, तृष्णा आदि उसके प्रकार है। परमात्मा
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