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का मोह-ममता रूप परिग्रह तो पूर्ण रूप से जलकर खाक बन गया है और दूसरे के देने से अब दिया नहीं जा सकता तो फिर आरिग्रही और मोहरहित भगवान दूसरे के करने से परिग्रही और मोह वाले कैसे बन सकते है
__ और श्री जिनप्रतिमा के सामने द्रव्य चढ़ाते समय पूजक की भावना कैसी होती है, यह भी समझने योग्य है।
द्रव्य चढ़ाते समय पूजक यह सोचता है कि "हे प्रभो! मैं जो धन अर्जित करता हूँ, उसमें अनेक प्रकार के कर्मबन्ध होते हैं। साथ ही उस धन को सांसारिक कार्यों में खर्च करने से विशेष पापवृद्धि होती है। ऐसी दशा में इस धन में से मेरे भाव के अनुसार जितना धन मैं आपकी भक्ति में खर्च करूंगा, उस मात्रा में पापवृद्धि रुक जाएगी। इतना ही नहीं परन्तु इससे पुण्यानुबन्धी पुण्य का सर्जन होगा। और अन्त में, यह धन मेरा तो है ही नहीं। मेरा तथा इसका स्वभाव भिन्न है। मैं चेतन हूँ, यह जड़ है। अतः इस पर से जितनी मूर्छा मोह उतरे, उतनी मुझे उताग्नी चाहिए। इस प्रकार अपने परिग्रह और अपनी मोह-ममता घटाने के लिए प्रभुभक्ति आदि धार्मिक कार्यों में द्रव्य खर्च किया जाता है।
जितनी मात्रा में अच्छे कार्य में द्रव्य खर्च करने की इच्छा होती है, उतनी मात्रा में तृष्णा कम होती है और जितनी मात्रा में धनसंचय की इच्छा होती है, उतनी मात्रा में परिग्रह
और लोभवृत्ति की वृद्धि होती है। ___मुनिजन भी संयमनिर्वाह के लिए वस्त्र, पात्र, पुस्तक आदि पदार्थ ग्रहण करते हैं। काया पुद्गल हैं, उसे भी वे धारण करते हैं। खान-पान भी करते हैं। उनका शिष्य समुदाय भी होता है। ये सभी प्रकार से पुद्गल ही हैं। उन सबको यदि परिग्रह गिनोगे तो साधुओं का पाँचवाँ व्रत सर्वथा नष्ट हुआ समझना पड़ेगा और किसी भी साधु को मोक्ष नहीं हो सकेगा। परन्तु आज तक असंख्य मुनि मोक्ष में पहुँच गये और आगे भी जायेंगे। अतः जैसे साधु पुरुषों के पास पूर्वोक्त वस्तुएँ होते हुए भी, वे उसमें लिप्त तथा ममता वाले नहीं होने से अपरिग्रही ही कहलायेंगे, वैसे ही श्री वीतराग भी अपरिग्रही हैं।
मरुदेवी माता को हाथी की सवारी किये हुए तथा करोड़ों का अलंकार पहने हुए आन्तरिक मोह के उपशमन के साथ ही केवलज्ञान उत्पन्न हो गया तथा छह खण्ड के स्वामी भरत चक्रवर्ती को गृह स्थावास में ही केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। इससे स्पष्ट है कि केवल बाह्य पदार्थों के योग से ही परिग्रह नहीं कहा जा सकता।
___ बाहरी पदार्थों के योग को ही यदि परिग्रह कहा जाय तो एक भिखारी जिसके पास पहनने को वस्त्र, खाने को अन्न अथवा फूटी कौड़ी भी न हो तो उसे परम अपरिग्रही तथा महात्यागी समझना चाहिए। पर ऐसा तो कोई नहीं मानता, कारण यह है कि उन भिखारियों के पास बाह्य पदार्थ नहीं होते हुए भी उनमें आन्तरिक परिग्रह यानि तृष्णा तो भरी हुई है,
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