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________________ प्रश्न 42 - भगवान तो साधु हैं। उनको कच्चे पानी से स्नान करवाने में किस प्रकार धर्म होता है? उत्तर - ऊपर बताये अनुसार भगवान तो जन्म से पूजनीय होने से जन्मावस्था आरोपित कर स्नान तथा यौवनावस्था आरोपित कर उनको वस्त्राभूषण पहनाये जाते हैं। ___ जैसे श्रद्धालु श्रावकों को ज्ञात होता है कि कोई पुरुष या स्त्री दीक्षा ग्रहण करने वाली है, तो उसे एक दो महीने तक घर-घर भोजन कराया जाता है। स्नान कराकर, वस्त्राभूषण पहनाकर, वरघोड़े पर चढ़ाकर घुमाया जाता है। यह सब सगाई-सम्बन्ध के निमित्त नहीं, परन्तु केवल भक्ति के निमित्त ही किया जाता है। इसके उपरान्त भी जब वही साधु बन जाता है, तब उनमें से कुछ भी नहीं किया जा सकता। भावनिक्षेप के आश्रित कार्य तथा द्रव्यनिक्षेप के आश्रित कार्य भिन्न-भिन्न होते हैं। भगवान को स्नान आदि कराकर अलंकारों से विभूषित करने का कार्य द्रव्यनिक्षेप की भक्ति के आश्रित है, न कि भावनिक्षेप के आश्रित। मूर्ति की भक्ति चारों निक्षेपों से करने की होती है। श्री तीर्थंकर महाराजाओं ने तो चारों घाती कर्मों का नाश कर डाला है, कर्मबन्धन के मूल मोह को जलाकर राख कर दिया है। वीतराग होने के कारण नये कर्मों का बन्धन उन्हें नहीं होता, ऐसा श्री भगवती तथा श्री पन्नवणा आदि सूत्रों में फरमाया है। - जब साधु को चार कषाय, छह लेश्या और आठ कर्म खपाने शेष हैं तो ऐसी दशा में सामान्य साधु और भगवान की पूजा का कल्प एक समान कैसे हो सकता है ? भगवान स्वर्णसिंहासन पर बैठते हैं, पर सामान्य साधु यदि सोने का स्पर्श भी करता है, तब भी दोष लगता है क्योंकि साधु के लिए मोह पैदा करने का वह कारण है। _भगवान को पच्चीस क्रियाओं में से एक ईर्यापथिकी (मार्ग पर चलने की) मात्र क्रिया लगती है और उससे भी प्रथम समय में कर्मबन्ध होता है, द्वितीय समय में यह कर्म भोगते हैं तथा तृतीय समय में नाश करते हैं। अत: कहाँतो केसरी सिंह और कहाँ हिरन? कहाँ चक्रवर्ती राजा और कहाँ भिक्षुक? इस प्रकार श्री वीतराग देव और वेषधारी साधु में महान् अन्तर है और इसीलिए दोनों की पूजा का व्यवहार भी एक समान कैसे हो सकता है? मूर्ति भगवान के गुणों का स्मरण कराने का एक आलम्बन है, इसलिए कच्चे पानी से स्नान का दोष उसे किस प्रकार लग सकता है? साक्षात् प्रभु की पूजा तथा उनकी मूर्ति की पूजा का कल्प तो अलग-अलग ही रहेगा। जैसे साक्षात् प्रभु को रथ में बिठाकर उनकी भक्ति नहीं की जाती, जबकि प्रभु की मूर्ति को भक्ति के लिए सभी रथ में बिठाते हैं। भाव अरिहन्त एवं स्थापना अरिहन्त की भक्ति करने की प्रणाली में कई प्रकार से अन्तर पड़ता है। प्रश्न 43 - भगवान तो आघाकर्मी या अव्याहृत आहार काम में नहीं 119
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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