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विरागीपन में लेशमात्र भी न्यूनता कैसे आ सकती है? भगवान की तीन अवस्थाओं में प्रथम पिण्डस्थ अवस्था के तीन भेद हैं -
(1) जन्मावस्था- नहलाना, प्रक्षालन करना, अंग पोंछना आदि करना जन्मावस्था की भावना है।
(2) राज्यावस्था- केसर, चन्दन, फूलमाला, आभूषण, अंगरचना आदि करना, राज्यावस्था की भावना है।
(3) श्रमणावस्था - भगवान का केश रहित मस्तक, कायोत्सर्गासन आदि का चिन्तन करना श्रमणावस्था की भावना है। ____ दूसरी पदस्थ अवस्था - पद कहने से श्री तीर्थंकर पद । इसमें केवलज्ञान से लेकर निर्वाण पर्यन्त की केवली अवस्था का चिन्तन करने का है। इस अवस्था में प्रभु आठ प्रातिहार्य सहित होते हैं तथा रत्नजडित सिंहासन पर बैठते हैं। सोने का लगातार स्पर्श पाकर भी उनका वीतराग भाव चला नहीं जाता और यदि चला जाता होता तो गणधर महाराज तथा इन्द्रादिदेव किसलिए वीतराग कहकर उनकी स्तुति करते? वीतरागपन का भाव यह कोई बाह्य पदार्थ नहीं, परन्तु आन्तरिक वस्तु है।
तीसरी रूपातीत अवस्था- यह रूप रहित सिद्धत्व की अवस्था है। प्रभु को पर्यकासन पर काउसग्ग ध्यान में शान्त मुद्रा में बैठे हुए देखकर रूपातीत अवस्था की भावना करने की है। ऐसी दशा में प्रभु को देखकर इस अवस्था का चिन्तन करने में आत्मा को अपूर्व शान्ति प्राप्त होती है।
जो प्रातिहार्यादि पूजा को नहीं मानते, उन्हें तो केवल निर्वाण अवस्था को ही मानना चाहिए, पर ऐसा तो तभी हो सकता है कि जब भगवान की एकान्त निर्वाण अवस्था ही पूजनीय हो तथा अन्य अवस्थाएँ अपूजनीय हों। प्रभु की समस्त अवस्थाएँ पूजनीय हैं, इसलिये उनको पूजने की रीति भी उपर्युक्त तीन प्रकार से शास्त्रकारों ने बतलाई है।
यहाँ एक बात यह भी समझने की है कि जिन साधुओं को लोग वन्दन करते हैं, पूजा करते हैं वे त्यागी हैं अथवा भोगी? यदि त्यागी हैं तो वे आहार पानी आदि का उपयोग क्यों करते है? वन्दन-नमस्कार क्यों स्वीकार करते हैं? वस्त्र, पात्र आदि ग्रहण करने से क्या वे भोगी, अभिलाषी या तृष्णावान् सिद्ध नहीं होते हैं? यदि नहीं तो जिस प्रकार साधु महात्मा राग-रहित होकर पूर्वोक्त वस्तु को उपयोग में लेकर, संयम साधना करते हैं; फिर भी भोगी नहीं बन जाते, उसमें लिप्त नहीं होते, बल्कि सेवक पुरुष यथोचित भक्ति कर आत्मकल्याण साधते हैं, वैसे ही वीतरागदेव की पूजा के लिए भी समझने का है।
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