________________
(28)
श्री प्रश्नव्याकरण में आदेश है कि निर्जरा के अर्थी साधु को 'चेइथट्टे' अर्थात् जिनप्रतिमा की हीलना, उसका अवर्णवाद तथा उसकी दूसरी भी आशातनाओं का उपदेश द्वारा निवारण करना चाहिए।
(29) श्री आवश्यक मूल सूत्र पाठ में -
“अरिहंत चेइयाणं करेमि काउस्सगं" - ऐसा कहकर, साधु तथा श्रावक, सर्वलोक में रही हुई श्री अरिहन्त की प्रतिमा का काउस्सग्ग, बोधिबीज के लाभ के लिए करे - ऐसा फरमाया है।
(30) "थयथुइ मंगलं"
स्थापना की स्तुति करने से जीव सुलभबोधि होता है-ऐसा श्री उत्तराध्ययन सूत्र में लिखा है।
(31-32) श्री अनुयोगद्धार तथा श्री ठाणांग सूत्र में चारों निक्षेप और चार प्रकार के तथा दस प्रकार के सत्यों का वर्णन किया हुआ है जिसमें स्थापना निक्षेप तथा स्थापना सत्य भी आता है। उससे भी स्थापना अर्थात् मूर्ति को मानने की बात सिद्ध हो जाती है। - दुराग्रह रहित बुद्धिमान् लोगों के लिए केवल संकेत ही काफी है। सूत्र के सैकड़ों पाठों में से केवल इतने ही पाठ देना उचित समझते हैं। और भी कई प्रमाण प्रसंग आने पर बताये जायेंगे। उस पर से विद्वान् पाठकगण वास्तविक निर्णय कर सकेंगे। अगर जैनों में परम्परा से मूर्तिपूजा न होती तो उसका उल्लेख मूलसूत्रों में कहाँ से आया? जगत् में प्रत्येक नामावली वस्तु अपने गुणविशेष से जुड़ी हुई है, वैसे ही 'मूर्ति' नामधारी वस्तु भी किसी प्रकार निरर्थक नहीं है। मर्ति शब्द भी उसमें रही हई वस्तु का वास्तविक बोध कराती है। वह स्थापना सिवाय अन्य किसी भी विषय के कारण से सिद्ध नहीं होती.
प्रश्न 41 - प्रतिमा को जिनराज के तुल्य मानना और उसे आभूषण आदि चढाना, पुष्प, धूप, स्नान, विलेपनादि करना, क्या यह उचित है? स्या यह क्रिया त्यागी को भोगी यनाने जैसी नहीं है?
उत्तर - त्यागी और भोगी का अन्तर जो जानता है, वह ऐसा प्रश्न नहीं कर सकता।
1151