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________________ अर्हन्त शब्द का व्याकरण की दृष्टि से अर्थ निम्नानुसार है - अरिहंति यंदणनमंसणाइ, अरिहंति पूअसक्कारं। सिद्धिगमणं च अरहा, अरहंता तेण युच्चंति।। अर्थ - जो वन्दन नमस्कार आदि के योग्य है, जो (इन्द्र आदि देवों के किये हुए आठ प्रातिहार्य रूप) पूजा एवं सत्कार के योग्य है और जो सिद्धि गति की प्राप्ति के योग्य है, उसे अरहन्त कहा जाता है। इस प्रकार अरहन्त नाम ही द्रव्यपूजा का सूचक है। जिनके राग-द्वेष जड़मूल से उखड़ गये हैं, वे दूसरे के द्वारा की हुई पूजा से भोगी अथवा रागी कैसे बन सकते हैं? राग की उत्पत्ति का कारण मोह-ममता है औव वह सर्वथा नष्ट हो चुकी है, तो वे इसमें किस प्रकार लिप्त हो सकते हैं? यदि पूजा से भोगी बन जायेंगे तो क्या निन्दा से निन्दनीय बन जायेंगे? नहीं। पूजा अथवा निन्दा से उनकी महिमा बढ़तीघटती नहीं। पूजा तथा निन्दा से उनका कोई सम्बन्ध नहीं। पूजक और निन्दक पुरुष को ही वे क्रियाएँ शुभाशुभ फल देने वाली हैं। भगवान को केवल-ज्ञान होने के पश्चात् आठ प्रातिहार्य होने का श्री समवायांग सूत्र में विस्तृत वर्णन है . (1) अशोक वृक्ष भगवान को छाया करता है। (2) देवता जल-थल में उत्पन्न पंचरंगी पुष्पों को घुटनों तक बरसाते हैं। (3) आकाश में देवदुंदुभि बजती है। (4) दोनों ओर चयर दुलते हैं। (5) प्रभु के बैठने के लिए रत्नजड़ित स्वर्ण-सिंहासन हमेंशा साथ रहता है। (6) रत्नमय तेज के अंबाररूप भामण्डल भगवान के पीछे रहता है। (7) दिव्यध्यनिरूप प्रातिहार्य द्वारा मनोहर वीणावादन होता है। (8) एक ऊपर दूसरा, ऐसे तीन छत्र प्रभु के सिर पर रहते हैं। और लाखों, करोड़ों देव जय-जयकार की ध्वनि से स्तुति करते हुए साथ रहते हैं। देव समवसरण बनाते हैं, जिसमें चांदी का गढ़ और सोने के कंगूरे, सोने का गढ़ और रत्न के कंगूरे, रत्न का गढ़ और मणिमय कंगूरे होते हैं और बीस हजार सीढ़ियाँ एक तरफ होती हैं; भगवान रत्नमय सिंहासन पर विराजमान होकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके देशना देते हैं। शेष तीन दिशाओं में देवता भगवान की तीन मूर्तियाँ स्थापित करते हैं। इन दिशाओं से आने वाले लोग तथा तिर्यंच उनको साक्षात् प्रभु जास्कर नमस्कार करते हैं। प्रभु एक अपने मुख से तथा तीन दिशाओं में मूर्ति के मुख से, इस प्रकार चार मुखों से अतिशय द्वारा देशना देते हैं। चलते समय भगवान स्वर्णकमल पर पैर रखकर ग्रामानुग्राम विहार करते हैं, सुगन्धित पवन, सुगन्धित जल का छिड़काव और पुण्यवान् पुरुषों के लायक अनेक दिव्य पदार्थ प्रकट होते हैं। इतने पदार्थों का सेवन करने वाले तीर्थंकरों का त्यागीपन -[116 -
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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