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(24) सम्यग्दृष्टि सूर्याभदेव ने जिनप्रतिमा को नमस्कार कर, फल चढ़ाकर, अष्ट मंगल का आलेखन कर, अनेक प्रकार से धूपादि कर स्तुति में शक्रस्तव 'नमोत्थुणं' कहकर सत्रह प्रकार से पूजा की है। सका विस्तृत वर्णन श्री राथपसेणी में है जो अतिविस्तृत होने से यहाँ नहीं लिखा है।
श्री महावीर प्रभु ने पूजा का फल बताते हुए कहा है कि"हियाए सुहाए खेमाए निस्सेयस्साए अणुगामित्ताए भविस्सइ।"
अर्थ - श्री जिनप्रतिमा की पूजा पूजक के हित के लिए, सुख के लिए, मोक्ष के लिए तथा जन्मान्तर में भी साथ में आने वाली है।
श्री जीयाभिगम सूत्र में विजयपोली तथा अन्य अनेक सम्यग्दृष्टि देवों के द्वारा की गई सत्रह प्रकार की पूजा का वर्णन है और उसका फल यावत् मोक्ष तक कहा है।
(26) श्री ज्ञातासूत्र में तीर्थंकर गोत्र-बंध के लिए बीस स्थानक कहे हैं। उनमें "सिद्धपद की आराधना करना" ऐसा फरमाया है। उन अरूपी सिद्ध भगवान का ध्यान-आराधन उनकी मूर्ति बिना हो ही नहीं सकता।
(27) श्री व्यवहार सूत्र में कहा है कि - "सिद्धयेयायच्चेणं महानिज्जरा महापज्जयसाणं चेयति।" सिद्ध भगवान की वैयावच्च करने से महानिर्जरा होती है अर्थात् मोक्ष मिलता है।
तर्क- सिद्ध भगवान की वैयावच्च तो नाम-स्मरण से ही हो जाती है तो फिर मूर्ति का क्या प्रयोजन?
उत्तर - नामस्मरण को तो गुणगान, कीर्तन, भजन, स्वाध्याय आदि कहते हैं, वैयावच्च नहीं। यदि वैयावच्च का अर्थ ऐसा करोगे तो श्री प्रश्नव्याकरण में बालक की, वृद्ध की, रोगी की तथा कुलगणादि की दस प्रकार से साधु को वैयावच्च करनी चाहिये तो क्या केवल नामस्मरण से वैयावच्च हो जायेगी? अथवा आहार-पानी, औषधि, अंगमर्दन, शय्या, संथारा आदि करने से होगी? नाम आदि याद करने से वैयावच्च नहीं गिनी जाती, पर पूर्वोक्त प्रकार से सेवा-भक्ति करने से ही गिनी जाएगी। सिद्ध भगवान की वैयावच्च तो उनका मन्दिर बनवाकर, उसमें उनकी मूर्ति स्थापित कर, वस्त्राभूषण, गंध, पुष्प, धूप-दीप द्वारा अष्ट प्रकारी व सत्रह प्रकारी आदि पूजा करना, उसे ही कहा जाएगा।
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