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________________ (15) श्री आवश्यक सूत्र में भरत चक्रवर्ती के श्री जिनप्रार‍ थूभसयभाउगाणं चउवीसं चेय जिणहरे कार्स सय्यजिणाणं पडिमा यण्णपमाणेहिं निअएहिं अर्थ- एक सौ भाई के सौ स्तम्भ तथा चौबीस तीर्थंकर महाराज के जिनमन्दिर सारे तीर्थंकरों की उनके वर्ण तथा शरीर के प्रमाणवाली प्रतिमाएँ श्री अष्टापत पर्वत पर भरत राजा ने स्थापित की। का उल्लेख है। (16) श्री आवश्यक सूत्र में कहा है कि - "अंतेउरे चेड़यहरं कारियं पभावती पहाता, तिसंज्झं अच्चेइ, अन्नया देवी णच्चेड़, राया वीणं वायेइ" भावार्थ- प्रभावती रानी ने अन्तःपुर में चैत्यघर (जिनभवन) बनवाया। उस मन्दिर में रानी स्नान करके प्रातःकाल, मध्याह्नकाल तथा सायंकाल त्रिकाल पूजन करती हैं। किसी समय रानी नृत्य करती है तथा राजा स्वयं वीणा वादन करता है। (17) श्री शालिभद्र चरित्र जिसे प्रायः तमाम जैन मानते है, में कहा है कि - शालिभद्र के घर में उनके पिता ने जिनमन्दिर बनवाया था तथा रत्नों की प्रतिमाएँ बनवाई थी। वह मन्दिर अनेक द्वारों सहित, देवविमान जैसा बनाया गया था । (18-19-20) श्री भगवती, श्री रायपसेणी और श्री ज्ञातासूत्रादि अनेक सूत्रों में श्रावकों के वर्णन में "न्हाया कययलिकम्मा ।” अर्थात् " स्नान करके देवपूजा करना" ऐसे उल्लेख हैं। श्री भगवतीजी में तुंगीया नगरी के श्रावक के अधिकर में कहा गया है कि " 'श्रावक यक्ष, नाग आदि अन्य देवों को नहीं पूजे" तथा श्री सूयगडांग सूत्र में भी कहा है कि नागभूतयक्षादि तेरह प्रकार के अन्य देवों की प्रतिमा को पूजने से मिथ्यात्वपना प्राप्त होता है तथा बोधिबीज का नाश होता है। इससे सिद्ध होता है कि श्री अरिहन्तदेव की प्रतिमा को पूजने से समकित की प्राप्ति होती है तथा बोधिबीज की रक्षा होती है । इस कारण " कययलिकम्मा" पाठ से श्रावकों को श्री जिनप्रतिमा की पूजा करनी चाहिए । कितने ही 'न्हाया कययलिकम्मा" का "स्नान करके फिर पानी के कुल्ले 66. 1
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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