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"तए णं सिद्धये राया यसाहियाए ठिइवडियाए वट्टमाणीयए सइए अ साहस्सिए अ, सथसाहस्सिए अ, जाए अ, लंभे पडिच्छमाणे अ पडिच्छायमाणे अ एवं या विहरइ "
भावार्थ - उसके बाद सिद्धार्थ राजा, दस दिन तक महोत्सव के रूप में कुल मर्यादा का पालन करते हैं जिसमें सौ, हजार अथवा लाख द्रव्य लगे, ऐसे याग - अरिहन्त भगवन्त की प्रतिमा की पूजा करते हैं, औरों से करवाते हैं तथा बधाई को स्वयं ग्रहण करते हैं तथा सेवकों द्वारा ग्रहण करवाते हुए विचरण करते हैं।
शंका- सिद्धार्थ राजा ने यज्ञ किया था, पर पूजा नहीं की थी ?
समाधान- सिद्धार्थ राजा श्री पार्श्वनाथ स्वामी के बारह व्रतधारी श्रावक थे, ऐसा श्री आचारांग सूत्र में कहा है । तो विचार करें कि घोड़े, बकरे आदि पशुवध का यज्ञ वे कभी करेंगे या करायेंगे? लंभ अर्थात् बधाई । व्याकरण के आधार पर यज् शब्द देवं पूजयामीति वचनात्, देवपूजावाची है। श्रावक तो जिनयज्ञ- पूजा करता है। परम सम्यक्त्वधारी श्रावक सिद्धार्थ राजा श्री जिनमन्दिर में द्रव्यपूजा करने से बारहवें देवलोक (किसी मत से चौथे देवलोक ) में जाने का सूत्र में कहा है। यदि हिंसक यज्ञ करने वाले होते तो निश्चय ही नरक में जाने चाहिए, परन्तु सिद्धार्थ राजा के मोक्षगामी जीव होने का, श्री वीर परमात्मा ने फरमाया है। चौबीस तीर्थंकरों के मातापिता निश्चय से मोक्षगामी जीव होते हैं। '
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श्री व्यवहार सूत्र में कहा है कि साधु जिनप्रतिमा के सम्मुख आलोचना लेता है। श्री महानिशीथ सूत्र के चौथे अध्ययन में श्री जिनमन्दिर बनवाने वाले को बारहवें देवलोक अर्थात् दान, शील, तप तथा भावना की आराधना से जिस फल की प्राप्ति होती है, वह फल प्राप्त होता है, ऐसा फरमाया है।
काउंपि जिणाययणेहिं, मंडियं सव्यमेइणीयट्टं ।
दाणाइचउक्केण सड्डो गच्छेज्ज अच्चुयं जाय न परं ||१||
भावार्थ- पृथ्वीतल को जिनमन्दिरों से सुसज्जित करके तथा दानादि चारों (दान, शील, तप और भाव) करके श्रावक अच्युत - बारहवें देवलोक तक जाता है, उससे ऊपर नहीं।
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पुन: उसी सूत्र में अष्ट प्रकार की पूजा आदि का विस्तार से वर्णन है। उससे जानने के इच्छुक लोगों को उसे देखना चाहिए।