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________________ वंदन करने का अधिकार बीसवें शतक के नवें उद्देश्य में कहा है - "नंदीसरदीये समोसरणं करेइ, करेइत्ता तहिं चेइयाई यंदइ, यंदइत्ता इहमागच्छह इहमागच्छइत्ता, इह चेइआई यंदइ।।" भावार्थ- (जंघाचारण व विद्याचारण मुनि) श्री नन्दीश्वर द्वीप में समवसरण करते हैं। उसके बाद वहाँ के शाश्वत चैत्यों (जिनमन्दिरों) की वन्दना करते हैं। वन्दना करके यहाँ भरतक्षेत्र में आते है और आकर यहाँ के चैत्यों (अशाश्वत प्रतिमाओं) की वन्दना करते हैं। (7) श्री भगवतीसूत्र में अमरेन्द्र के अधिकार में तीन शरण कहे हैं। वे नीचे माफिक हैं - अरिहंते या अरिहंतचेइयाणि या भावीअप्पणो अणगारस्स भावार्थ- (1) श्री अरिहंत देव (2) श्री अरिहंत देव के चैत्य (प्रतिमा) और (3) भावित है आत्मा जिनकी ऐसे साधु, इन तीनों की शरण जानना। ___(8) श्री आचारांग के प्रथम उपांग श्री उववाई सूत्रानुसार अम्बड़ श्रावक तथा उसके सात सौ शिष्यों ने अन्य देव गुरु की वन्दना का निषेध कर श्री जिनप्रतिमा तथा शुद्ध गुरु को नमस्कार करने का नियम लिया है। वह सूत्र-पाठ निम्नांकित है - "अंबडस्सपरियायगस्सनो कप्पड़ अनउत्थिए या अन्नउत्थिय देवयाई या अन्नउत्थिअपरिग्गहियाई अरिहंतचेइयाई या यंदित्तए या नमंसित्तए या, नन्नत्थ अरिहंते या अरिहंत चेइआई या" अन्य तीर्थी के प्रति अथवा अन्य तीर्थों के देवों के प्रति अथवा अन्य तीर्थियों ने ग्रहण किये हों ऐसे अरिहन्त के चैत्य (प्रतिमा) के प्रति वन्दना, स्तवना तथा नमस्कार करना अम्बड़ संन्यासी के लिए वर्जित है परन्तु अरिहन्त अथवा अरिहन्त की प्रतिमा को नमस्कार करना वर्जित नहीं है। (9) छठे अंग श्री ज्ञातासूत्र में द्रौपदी श्राविका के सत्रह भेदों की द्रव्य भाव पूजा में "नमोत्युणं अरिहंताणं' कहने का पाठ आता है . "तए णं सा दोाई रायटरकन्ना जेणेव मज्जणघरे तेणेय उवागच्छद्द, मज्जणघरं अणुप्पविसइ, हाया कयवलिकम्मा कयकोउयमंगल-पायच्छिता सुद्धप्पायेसाई यत्थाई परिहिया मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ, जेणेय 107
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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