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जिणधरे तेणेय उयागच्छइ, उयागच्छंइत्ता जिणारं अणुष्पविसइ अणुपविसइत्ता आलोए जिणपडिमाणं, पणामं करेइ, लोमहत्थयं परामुसइ एवं जहा सुरियाभो जिणपडिमाओ अच्चेइ तहेव भाणिअय्यं जाय घुयं डहइ, धुवं डहइत्ता यामं जाणुं अंचेइ, अंचेइता दाहिणजाणुं घरणितलंसि निहट्ट, तिखुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि नियेसेइ नियेसेइत्ता ईसिरपच्चुणमइ २ करयल जाव कट्टु एवं वयासीणनमोत्थूणं अरिहंताणं भगवंताणं जावसंपत्ताणं वंदइ णमंसइ जिणघराओ पडिणिक्स्वमइ ।
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इसका भावार्थ इस प्रकार है :- इसके बाद वह द्रौपदी नाम की राजकन्या स्नान गृह के स्थान पर आती है और आकर मज्जनधर में प्रवेश करती है। प्रवेश कर पहले स्नान करती है। फिर बली कर्म अर्थात् घरमन्दिर की पूजा करके मन की शुद्धि के लिए कौतुक मंगल करने वाली वह, शुद्धि दोषरहित पूजन योग्य, बड़े जिनमन्दिर में जाने योग्य प्रधानवस्त्र पहनकर मज्जन घर में से निकलती है और निकलकर जहाँ जिनमन्दिर है उस स्थान पर आती है | आकर जिनघर में प्रवेश करती है तथा तत्पश्चात् मोरपंख द्वारा प्रमार्जन करती है। बाकी जैसे सूर्याभदेव ने प्रतिमा-पूजन की, उसी विधि से सत्रह प्रकार से पूजा करती है, धूप करती है। धूप करके बाँया घटना ऊपर रखती है व दाहिना घुटना जमीन पर स्थापित करती है। तीन वार पृथ्वी पर मस्तक झुकाती है तथा फिर थोड़ी नीचे झुककर, हाथ जोड़कर, दस नाखून शामिल कर, मस्तक पर अंजलि कर ऐसा कहती है- 'अरिहन्त भगवान को नमस्कार हो' - जब तक सिद्धगति को प्राप्त हुए तब तक अर्थात सम्पूर्ण शक्रस्तव बोलती है । वन्दननमस्कार करने के बाद मन्दिर में से बाहर निकलती है।
(मज्जन घर में द्रौपदी ने घर- मन्दिर की पूजा की है। उसके बाद अच्छे वस्त्र पहन कर वाहर मन्दिर में गई है। इसी प्रकार अब भी श्रावक करते है | )
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श्री उपासकदशांग सूत्र में आनन्द श्रावक द्वारा जिनप्रतिमा के वन्दन का पाठ है। वह निम्नलिखित है -
" नो खलु मे भंते! कप्पइ अज्जप्पभिड़ं अन्नउत्थिए या, अन्न उत्थियदेवयाणि या, अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि अरिहंतचेइयाणि या वंदितए वा नमंसित्तूए या "
मायार्थ - हे भगवन्! मेरे आज से लेकर अन्यतीर्थी (चरकादि), अन्यतीर्थी के देव (हरि-हरादि) तथा अन्य तीर्थियों के द्वारा ग्रहण किये हुए अरिहन्त के चैत्य ( जिन प्रतिमा) आदि को वन्दन- नमस्कार करना वर्जनीय है ।
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