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शास्त्र-दर्पण में जिन-पूजा
(1) श्री महाकल्पसूत्र में एक स्थान पर श्री गौतमस्वामी पूछते हैं . से भयवं तहारूये समणे या माहणे या चेइयघरे गच्छेज्जा?
हंता। गोयमा। दिणे दिणे गच्छेज्जा। से भययं जत्थ दिणे न गच्छेज्जा तओ किं पायच्छित्तं हवेज्जा? गोयमा! पमायं पडुच्च तहारुये समणे या माहणे वा जो जिणघरं न गच्छेज्जा तओ छठें अहया दुवालसमं पायच्छितं हवेज्ज।
- से भययं समणोयासगस्स पोसहसालाए पोसहिए पोसहयंभयारी किं जिणहरं गच्छेज्जा? ....
हंता । गोयमा! गच्छेज्जा : .. से केणठेणं गच्छेज्जा? . . गोयमा ! णाणदंसणचरणट्ठाए गच्छेज्जा।
जे केह पोसहसालाए पोसहयंभयारी जओ जिणहरे न गच्छेज्जा तओ पायच्छितं हवेज्जा?
गोथमा। जहा साहू तहा भाणियव्यं छटुं अहवा दुवालसमं पायच्छिन्तं हवेज्जा ।
"हे भगवन्! तथारूप श्रमण अथवा माहण तपस्वी चैत्यघर अर्थात् जिनमन्दिर में जावें?" भगवान् कहते हैं . "हाँ गौतम! सर्वदा प्रतिदिन जावें।"
गौ. - "हे भगवन्! यदि वह नित्य नहीं जावे तो प्रायश्चित्त आता है?" भ. - "हाँ गौतम! प्रायश्चित्त आता है।" गौ. - "हे भगवन्! क्या प्रायश्चित्त आता है?"
भ. - "हे गौतम! प्रमाद के वश होकर तथारूप श्रमण अथवा माहण यदि जिनमन्दिर नहीं जावें ते छट्ठ (दो उपवास) का प्रायश्चित्त आता है अथवा पाँच उपवास का प्रायश्चित होता है।"
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