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हैं तो उसका फल वे अवश्य भुगतेंगे। इससे शासनदेवताओं को कलंक नहीं लगता अथवा इससे स्थापना अरिहन्त की महिमा भी नहीं घटती। अरिहन्त की महिमा तो तभी कम हो सकती है, जबकि स्थापना अरिहन्त के भक्तों को इस भक्ति से वीतराग परमात्मा के गुणों आदि का स्मरण न होता हो, उनको वीतराग भाव, देशविरति अथवा सर्वविरति के परिणाम, संयम और तप की ओर वीर्योल्लास, भवभ्रमण का निवारण अथवा मोक्षसुख की निकटता आदि न होती हो। इन सभी लाभों से कोई भी इन्कार नहीं कर सकता।
प्रश्न 35 - निरंजन निराकार की मूर्ति किस प्रकार यन सकती है?
उत्तर - तमाम मतों के देव तथा शास्त्रों के रचयिता निराकार नहीं हुए, साकार ही हुए हैं। देहधारी के सिवाय कोई भी शास्त्रों की रचना नहीं कर सकता और न मोक्षमार्ग ही बता सकता है। सभी शास्त्र अक्षर स्वरूप हैं। अक्षरों का समूह तालु, ओष्ठ, दाँत आदि स्थानों से उत्पन्न होता है और वे स्थान देहधारी के ही होते हैं और इसीलिए ऐसे प्रत्येक व्यक्ति की मूर्ति अवश्य हो सकती है।
मोक्षगामी होने के पश्चात् वे अवश्य निराकार बन जाते हैं, फिर भी उनकी पहिचान के लिए मूर्ति की आवश्यकता रहती है। जिस प्रकार शास्त्रों के रचने वाले देहधारियों के मुख से निकले हुए अक्षरों के समूह किसी विशेष आकार के नहीं होते हैं; यद्यपि उनके आकार की कल्पना करके, उनको शास्त्रों के कागजों पर अंकित किया गया है और इसी से उनका बोध होता है। वैसे ही निराकार सिद्ध भगवान का आकार भी इस दुनिया में, उनके अन्तिम भव के अनुसार कल्पना करके मूर्ति रूप में उतारा जाता है। इससे निराकार सिद्ध भगवान का स्वरूप भी समझा जा सकता है तथा साक्षात् सिद्ध के रूप में उनका ध्यान करने वालों की सभी मनोकामनाएँ भी पूर्ण होती हैं।
ऐसा एक नियम है कि किसी भी निराकार वस्तु का परिचय कराना हो तो उसे साकार बनाकर ही किया जा सकता है। इसके लिए प्रसिद्ध दृष्टान्त सभी प्रकार की लिपियों का है। अपने मन के आशय को दूसरे के शब्दों द्वारा स्पष्ट रूप से समझाया जा सकता है और ये शब्द जिन वर्णों के बने होते हैं उन वर्णों को भिन्न-भिन्न आकार देने से ही उनके अर्थ का स्पष्ट ज्ञान कराया जाता है। वर्गों को क, ख, ग, घ अथवा आकार नहीं दिया जावे तथा सबकी आकृति एक समान कर दी जाय तो किसी को भी बोध हो सकता है क्या? नहीं। इसलिये निराकार वस्तु का स्पष्ट बोध उसे आकार प्रदान किये बिना नहीं कराया जा सकता।
प्रश्न 36 - इस युग में युद्धिजीवी लोग मूर्ति को नहीं मानते हैं, केवल जड़ लोग ही मानते हैं, क्या यह यात ठीक है?
उत्तर - यह बात सर्वथा असत्य है। किसी भी काल के बुद्धिमान् लोगों का कार्य मूर्ति को माने सिवाय चलता ही नहीं। कोई प्रत्यक्ष रूप से मानते हैं और कोई परोक्ष रूप से।
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