________________
सभी अपने-अपने धर्मोपदेशकों को मानते हैं। वे देहधारी होते हैं और इसलिए उनका आकार भी होता है। अपने मत के उपदेशक को पहचानने के लिए उनके देहाकार का उपयोग किये बिना क्या उनका काम चलता है ? नहीं चलता।
यूरोप, अमेरिका, एशिया तथा अफ्रिका आदि भिन्न-भिन्न खण्डों तथा उनमें बसे विभिन्न नगरों, नदियों, पर्वतों आदि का ज्ञान देने के लिए प्रत्येक मनुष्य को उन-उन देशों के नक्शों आदि का आलम्बन लेना ही पड़ता है। किसी भी नए घर, हाट, हवेली, दुकान, महल अथवा गढ़ को बनाते समय उसके पूर्व उसका प्लान तैयार करना ही पड़ता है। यह मूर्ति नहीं तो और क्या है?
प्रत्येक धर्मानुयायी शास्त्र तथा माला को तो मानते ही हैं। जैसे वचन की स्थापना शास्त्र है वैसे माला भी अपनी-अपनी मानी हुई इष्ट वस्तुओं की अथवा उनके गुणों की स्थापना ही है। अन्यथा संख्याविशेष मणकों की ही माला होनी चाहिए, ऐसा नियम नहीं हो सकता।
प्रत्येक मत वाले अपने इष्टदेव को पूजने हेतु किसी-न-किसी प्रकार के आकार को मानते ही हैं, अब इस बात को दूसरे ढंग से स्पष्ट करें।
1. ईसाइयों में रोमन केथोलिक ईसा की मूर्ति को मानते हैं। प्रोटेस्टेन्ट ईसा की स्मृति तथा उन पर की श्रद्धा को जीवित रखने के लिए उनको दी हुई सुली के निशान क्रोस को हमेशा अपने पास रखते हैं। ज्ञान की स्थापना रूप बाइबिल का आदर करते हैं, अपने पूज्य पादरियों के चित्र अपने पास रखते हैं तथा उनकी प्रतिमाओं, पुतलों तथा कब्रों का बड़ा आदर करते हैं।
मुसलमान नमाज के समय पश्चिम में काबा की तरफ मुँह रखते हैं। क्या खुदा पश्चिम के सिवाय अन्य दिशा में नहीं? तो फिर पश्चिम में मुँह रखने की क्या जरूरत? काबा की यात्रा पश्चिम दिशा में होती है इसलिए पश्चिम की ओर नजर रक्खी जाती है। तब फिर इसे भी खुदा की स्थापना ही माना जाय। मक्का मदीना हज करने जाते है तथा वहाँ काले पत्थर का चुम्बन करते हैं, टेढ़े होकर नमन करते हैं, प्रदक्षिणा देते हैं और उस तरफ दृष्टि स्थिर रखकर नमाज पढ़ते हैं। उसकी यात्रा के लिए हजारों रुपये खर्च करते हैं। उस पत्थर को पापनाशक मानकर उसका खूब सम्मान करते हैं।
जब अनघड़ पत्थर भी ईश्वर तुल्य सम्मान के योग्य है तथा उसके सम्मान से पापों का नाश होता है तो परमात्मा के साक्षात् स्वरूप की बोधक प्रतिमाएँ ईश्वर तुल्य क्यों नहीं? उनका आदर, सम्मान व भक्ति करने वालों के पापों का नाश क्यों नहीं होगा? क्या परमेश्वर सर्वत्र नहीं है कि जिससे मक्का मदीना जाना पड़ता है। अत: मानना पड़ेगा कि मन की स्थिरता के लिए मूर्ति के रूप में अथवा अन्य किसी रूप में स्थापना को मानने की
98