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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ को प्रत्यक्ष की । वेताली ने उसे कहा कि- हे योगी ! जो कार्य हैं, उसे आदेश करो । उसने कहा कि-हे महाविद्ये ! तुम जयसेना को मारो । वैसे ही इस प्रकार स्वीकार कर और उसके समीप में आकर जब वह देखती है, तब सम्यक्त्व में स्थिर चित्तवाली और कायोत्सर्ग में स्थित उसे देखकर, धर्म की महिमा से अमर्ष रहित हुई वह वेताली उसे प्रदक्षिणा देकर वापिस लौटकर वन में गयी । उसे विकराल देखकर योगी ने भय से पलायन किया । अन्य दिन फिर से भी द्वितीय बार उसके द्वारा प्रेरित की गयी भी जयसेना में विरूप करने में असमर्थ हुई अट्ट-हास को छोड़कर चली गयी । इस प्रकार तीसरी बार भी हुआ। . चतुर्थ-वेला में अपने अवसान से भय-भीत हुए योगी ने कहा कि-हे देवी! उन दोनों के बीच जो दुष्ट हैं, उसे तुम शीघ्र से मार डालो । उसने देव-गुरु में भक्त जयसेना को छोड़कर देह-चिन्ता के लिए उठी हुई उस प्रमादिनी गुणसुंदरी का तलवार से विनाश कर साधक की आज्ञा से स्व-स्थान पर चली गयी । तब कायोत्सर्ग को समाप्त कर बाहर आयी हुई जयसेना ने वैसी बनी हुई उस सपत्नी को देखकर सोचने लगी कि- अहो! पूर्व के कर्म से मुझे यह कलंक आया है । इस प्रकार सोचकर उपद्रव के क्षय के लिए फिर से भी स्मरण किया । इस ओर प्रातः काल में बन्धुश्री रात्रि के समय में क्या हुआ था ? इस प्रकार गवेषणा करने के लिए उत्सुक हुई पुत्री के गृह में आयी । काल की हुई पुत्री को देखकर और पूत्कार कर उसने राजा से कहा कि- हे राजन् ! मेरी पुत्री यह सपत्नी है, इस प्रकार के मत्सर से जयसेना के द्वारा मारी गयी है । तब रुष्ट हुए राजा ने उसे बुलाया। जब पूछने पर भी जयसेना ने उत्तर नहीं दिया तब शासनदेवी के द्वारा प्रेरित किया जाता हुआ योगी नगर के मध्य में कहते हुए और राज
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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