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उपदेश-प्रासाद - भाग १ सुख हैं ? गुणसुंदरी ने कहा कि-हे माता ! सपत्नी के ऊपर मुझे देकर क्यों तुम सौख्य पूछ रही हो ? प्रथम मुंडन कर पश्चात् नक्षत्र को पूछं रही हो और जल पीकर गृह को । मुझे लेश-मात्र भी सौख्य नहीं हैं। मेरा प्रिय भी सपत्नी में रक्त हैं । बन्धुश्री ने कहा कि- हे वत्से ! यदि यह वृद्ध तेरा पति राग से और कला से उसके द्वारा मोहित किया जाता हैं, तो अन्य की तो बात ही क्या ? जो कहा गया है कि-जहाँ पर साईठ वर्षवालें हाथी वायु के द्वारा ले जाये जातें है, वहाँ पर गाईयाँ नहीं गिनी जाती और मच्छरों की बात ही क्या ? ।
फिर भी हे पुत्री ! तुम स्वस्थ बनो, मैं तेरी सपत्नी के विनाश के उपाय को करूँगी । तुम पति के घर जाओं।
एक बार रुद्र की मूर्ति के समान अतिशय से युक्त और भिक्षा के लिए आये हुए कापालिक को देखकर स्व-कार्य करने के लिए उसे अनेक रस से युक्त अन्न दिया । क्योंकि
संसार में किसी का कोई प्रिय नही हैं सभी स्वार्थ से युक्त है। स्वार्थ की पूर्ति हेतु एक दूसरे की सेवा करते है । स्वार्थ की पूर्ति न हो तो जैसे दूध के क्षय को देखकर वत्स माता को छोड़ देता हैं।
वह कापालिक भी नित्य भिक्षा के लिए आता हैं । वह उसे नित्य नयी-नयी भिक्षा देती हैं। एक बार प्रत्युपकार करने के लिए उसे कहा कि- हे माता ! जो तुम्हारा कार्य हो, वह मुझसे कहो जैसे कि मैं उसे करूँ । उसने गद्-गद् कंठ सहित पुत्री-दुःख को कहा । वह सुनकर योगी ने कहा कि- हे माता ! यदि मैं मंत्र से जयसेना को मारकर मेरी भगिनी को सुखी नही करूँगा तो अग्नि में प्रवेश करूँगा । इस प्रकार प्रतिज्ञा कर वह स्व-स्थान पर चला गया ।
चतुर्दशी में प्रेत-वन में जाकर और एक मृतक को लाकर और पूजा कर वैताली-विद्या के जाप से योगी ने उस शव में वेताली